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तक उसका पराभव नहीं होता। वैसे पराभव भोग कर, अपमानित हो कर तो एक तिनके समान हलका तुच्छ बन जाता है। अतः अब, ऐसा अपमान पराभव नहीं चलाया जा सकता ।'
भील पर हमला :
मानभट घमंड पर चढ़ गया। घमंड से बेचारे भील पर रोष में चढा । भील ने तो क्षमा माँग ही ली थी फिर भी इसके दिल का अभिमानरूपी कीड़ा इसे बहका देता है । मनुष्य ज्यादा तो अपनी कल्पना तथा आंतरिक कषायों के कारण दुःखी होता है, दुष्कृत्य करता है, बरबाद होता है । मानभट ने मदान्ध बन कर छुरी निकाली - किसलिए ? भील को लगा देने के लिए ! अभिमान में अब वह (१) 'कार्य क्या अकार्य क्या ?' इसका कोई विचार नहीं करता । (२) 'मैं जो करने जा रहा हूँ सो सुन्दर है या असुन्दर ?' इसे भी ध्यान में नहीं लेता तो साथ ही (३) खुद को भी मौत आएगी या रक्षण मिलेगा ?' इसकी भी उसे परवाह नहीं है। वह तो सीधे छुरी निकालते ही भील - राजकुमार के सीने में भोंक देता है ।
विचार कीजिये; एक अभिमान भी मनुष्य को कैसे मिटा देता है ! जंगली जानवर काही यह काम है या और कुछ ? बाघ - शेर को यह गर्व है कि 'मेरे सामने कौन टिक सकता है।' इसलिए अब क्या ? तो यह कि 'करो इस पर प्राण घातक प्रहार ।' इसी तरह इस घमंडी को भी लगा कि यह भील मेरा अपमान करनेवाला कौन ? मारो इसे ।' इसमें मानवता कहाँ रही ? नागरिक पशुता भी कहाँ ?
आचार्य महाराज धर्मनन्दन कहते हैं
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अभिमान के नतीजे
मानभट भागता है :
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'न गणेइ परं, न गणेइ अप्पयं, ण य होंत महाहोतं
माणमउम्मत्त मणो पुरिसो मत्तो करिवरो व्व ॥ '
अभिमान एवं मद से उन्मत बना हुआ पुरुष मदोन्मत्त महाहस्ति के समान है। वह न तो दूसरे का विचार करता है, न अपना विचार करता है । वह न तो इस बात की परवाह करता है कि क्या होगा और न इस बात की परवाह करता है कि क्या नहीं होगा ? यही हालत मानभट की हुई । छुरी भोंक देने से भील को क्या होगा इसका भी विचार नहीं किया यह भी नहीं सोचा कि इसका खुद के लिए क्या परिणाम होगा ?"
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एक एक कषाय जीव को अंधा बना देता है ।
अतः अभिमान ने इसे अंधा कर दिया, इसमें क्या आश्चर्य ? आवेश में आकर छुरी भोंकते भोंक तो दी लेकिन अब क्षणभर वहाँ खड़े रहने की उसमें हिम्मत है ? सामने उस
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