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________________ भी वह तो यही मानेगा कि 'इससे क्या ? सब विमान थोड़े ही दुर्घटनाग्रस्त होते हैं।' है कोई भय ? है कोई मानव-जन्म की कीमत ? अनेकानेक भव्य सुकृत-सत्कार्य करने के लिये समर्थ मानव जन्म को लोभ में गंवा बैठता है। (७) लोभ बुरा है, महा कर्मादान के महा-पाप के धंधे कराता है, जीवों के प्रति निर्दय बनाता है। आज हिंसक धंधे कितने बढ़ गये हैं ? श्रावक ऐसे हिंसक धंधे करता है ? परन्तु लोभ में वह अपने श्रावकत्व को भूला बैठता है। पेथडशा ने लोभ को परखकर सुवर्ण-सिद्धि को भी छोड़ दिया : पेथडशा को कहीं से सुवर्णरस सिद्ध करने का नुस्खा मिल जाने से लोभ जगा । पेथड़ आबू पर गया। वहाँ कई प्रकार की वनस्पतियाँ उगती थीं। पेथड़ ने आबू के जंगलों में घूमफिरकर कई प्रकार की वनस्पतियाँ तोड़-तोड़कर उनके रस निकाले । रस निकालकर, उनका संयोजन कर-करके सुवर्णरस बनाने का प्रयत्न शुरु कर दिया। सुवर्णरस बनाना कोई मामूली बात थोड़े ही है ? रसशास्त्र में कहे हुए लक्षणोंवाली वनस्पतियाँ बराबर ही मिलें, ऐसा नियम नहीं। अंदाज से सोचा हो कि ऐसे ही लक्षणवाली है, परन्तु वह वनस्पति ऐसी न भी हो, ऐसा हो सकता है। पहले का कोई अनुभव न हो, लिखे हुए अक्षरों पर से जानकारी मिले और कुदरत के सर्जन में ऐसी ही मिलती-जुलती वनस्पतियाँ मिलती हों, जिससे अंदाज लगाकर आजमाइश करने के लिये कई हरी वनस्पतियों का नाश किया जाता है। पेथडशा को सुवर्ण रस सिद्ध करने के लिये ढेर सारी वनस्पतियों की विराधना करनी पड़ी । इसमें कई वनस्पतियाँ तो व्यर्थ गयीं । इस प्रकार करते-करते अन्त में सुवर्णरस सिद्ध हुआ। पुण्यशाली है न ? इसीलिये ऐसी महान सिद्धि हुई न? करोड़ों रुपये बनाने का उपाय हाथ में आया। अब कितना आनन्द होगा? हृदय कितना आनंदविभोर होगा? परन्तु इसके बाद पेथडशा आबू के जिनमन्दिर में जाते हैं। वीतराग प्रभु के दर्शन करते हुए उसका हृदय द्रवित हो उठा । वनस्पतिकाय जीवों की इतनी विराधना करने का अत्यन्त पश्चाताप होता है। प्रभु के आगे रोते हुए कहते हैं - (सवर्णसिद्धि होने पर भी पेथडशा का पश्चाताप : 'प्रभु । यह मैंने लोभ में आकर क्या किया? खुद-खुद के स्थान पर उगकर आनंद से रहनेवाले वनस्पतिकाय के कितने जीवों का मैंने संहार कर दिया ! उन्हें तोड़ा, छेदन किया, पीसा, घोटा । इसमें कहाँ रही दया की परिणति ? कहाँ रहा मेरा श्रावक-धर्म ? पेट भरने का तो प्रश्न था ही नहीं। पिटारा भरने की मन की भूख मिटाने के लिये इतने जीवों का संहार? इसमें मेरा श्रावक का कोमल दिल कहाँ रहा? मन की भूख कभी मिटती भी है ? हाय ! इन निर्दोष जीवों का संहार करके कितने पाप बांधे? परभव में मेरी कौन-सी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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