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गति होगी? इस तरह से धन हासिल करके खुश होऊ,तो जीवसंहार की वारंवार अनुमोदना होने से दया का अंश भी कहाँ से रहेगा? इस अनुमोदना के चालु रहने से नये-नये पापकर्मों का थोक भी कितना इकठ्ठा होता जायेगा ! धन की ममता भी कितनी बढ़ेगी? धिक्कार है मेरे लोभ को ! धिक्कार है मुझ जैसे लालची को ! प्रभु ! इतना ऊंचा मनुष्य भव, जैन धर्म व श्रावकत्व पाकर यह मैंने क्या किया? इतने ऊंचे संयोग मिलने पर भी हृदय को निर्दय व धीठ बनाने के बाद कितने पापी भवों की परंपरा ! इन भवों में धर्म तो हृदय में बसे ही कैसे? फिर ऐसे क्रूर पाप-भरे जीवन जीना? नाथ! तू और तेरा शासन पाने पर भी यह लोभ व यह निर्दयता करने में मैंने तेरी व तेरे शासन की कितनी अवगणना की? कितना बड़ा अपराध मैंने किया है ?'
पेथडशा को पाप का जबरदस्त पछतावा होता है। प्रभु के आगे अश्रू की धारा बहा रहे हैं । यह पश्चाताप अन्तर की गहराई से किया था, इसीलिये अब इस पाप, लोभ व निर्दयता को बन्द करने का निश्चय करते हैं, प्रतिज्ञा करते हैं कि 'अब मुझे यह सुवर्णरस नहीं चाहिये।'
पेथडशा ने पाप के पश्चाताप में क्या-क्या देखा ?) (१) यदि पुण्य होगा, तो धन तो दूसरे सद्-उपायों से भी मिल जाएगा।
(२) ऐसे अनिच्छनीय उपाय में तो धन के लोभ की कोई हद नहीं रहेगी, जिससे मन की भूख बढ़ती जायेगी।
(३) अति लोभ सर्व गुणों का नाश करेगा। (४) लोभ से दूसरे सैकड़ों पाप-कृत्य पैदा होंगे। (५) बेशुमार वनस्पति के संहार में उन जीवों के प्रति निर्दयता का पोषण किया। (६) ऐसी निर्दयता में श्रावकत्व का दयालु दिल गंवा दिया।
(७) ऐसे धन-लाभ में जब-जब खुश हुआ, वैभव की रक्षा व उपभोग किया, तबतब जीव-संहार की अनुमोदना से नये-नये पाप-कर्मों का बन्ध किया व निर्दयता के कुसंस्कारों की वृद्धि की।
(८) यह सब करने में वीतराग प्रभु व उनके शासन की अवगणना की, बेवफाई की।
(९) भावी अधम भवों की परंपरा का सर्जन किया, निर्दयता की परंपरा बढ़ायी व जैनधर्म की अप्राप्ति को निमंत्रण दिया। ___ (१०) ऐसे असद् उपाय से पैसे मिले, वहाँ पापानुबंधी पुण्य ही होगा म? इससे सिर्फ पुण्य बेचकर पाप खरीदने का काम किया।
पेथडशा ने ऐसे कई अनर्थ देखे । इन सब अनर्थों का मूल है - 'लोभ'। ऐसे अनर्थों को दूर करने के लिए पेथडशा को एक ही उपाय दिखा व प्रतिज्ञा की कि ऐसा
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