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________________ लोभदेव सोचने लगा कि 'मैं भी गंगा के पास जाकर मेरी आत्मा की शुद्धि करूं।' लोभदेव चल पड़ा गंगा की ओर ! धर्मनंदन आचार्य महाराज पुरंदरदत्त राजा को कह रहे हैं कि 'लोभदेव को अब शुद्धि की लगन लगी, तो गंगा की ओर चल पड़ा ! फिरते-फिरते वह यहाँ आ पहुंचा है।' आचार्य महाराज के श्रीमुख से स्वयं का जीवन-वृत्तान्त लोभदेव बराबर सुन रहा है। कथन पूरा होने पर वह खड़ा हुआ । उसके दिल में भारी मंथन चल रहा है, इसलिये अत्यन्त गद्गद् होकर आंख में अश्रूओं के साथ आचार्य भगवंत के चरणों में पड़कर निवेदन करता है, - तीव्र पाप-संताप में आत्म हत्या की तैयारी : 'हे उत्तम यशस्वी भगवंत! आपने जो कुछ भी कहा, वह पूर्णतः सत्य है, इसमें रत्ती भर भी झूठ नहीं ! अब मैं क्या करूं? मेरे महापापों को धोने के लिये सुलगती हुई चिता में जल मरुं ? या गंगा में डूब जाऊं? अथवा पर्वत पर से छलांग लगाऊं? क्या करूं?' उसे पाप का जोरदार पश्चात्ताप व शुद्धि की तीव्र लगन लगी है। इसीलिये उसका हृदय रो रहा है और वह भयंकर दुःख सहन करने के लिए भी अपनी तत्परता बताता है। कर्म व कुसंस्कारों का भारी मल साफ करना हो, तो यह जरुरी है कि (पापों-कुसंस्कारों को निर्मल करने के लिए ३ उपाय : (१) पाप चाहे छोटे हों या बड़े, उनके लिए अन्तर में जोरदार पश्चात्ताप-खेद-संताप होना चाहिये, वह भी ऐसा हो कि बिल्कुल चैन न पड़े। नजर के समक्ष उनके कटु विपाक के रुप में दुर्गति के दुःख भरे जन्म दिखते रहें और इनका भय रहा करे, तथा उन पापों व पाप करनेवाली स्वयं की आत्मा के प्रति घृणा-जुगुप्सा रहे। (२) दूसरा यह जरुरी है कि पापों से लगी हुई अशुद्धि मिटाकर शद्धि करने की तीव्र तमन्ना व लगन हो, वहाँ स्वाभिमान बीच में न आये कि 'मैं तो इतना प्रख्यात, होशियार व बड़ी उम्र का हूं, मैं गुरु से कैसे कहुं कि मैंने ऐसा अधम पाप किया था?' मन में ऐसा कोई विचार नहीं आना चाहिये । शुद्धि करनी हो, तो मान, माया, बडप्पन, सब कुछ बाजु में रख देना पड़ता है। तभी गुरु के आगे बालक की तरह बिना कुछ छुपाये सही कबुलात हो सकती है। मोहनीय कर्म की कैसी खूबी है कि 'वह जीव को यह नहीं देखने देता कि दिल में पाप के गुप्त शल्य रखे व बाहर बड़े होकर फिरे, तो भवांतर में यह शल्य नहीं निकलेगा, पापवृत्ति की परंपरा चलेगी । वहाँ कैसी भयानक दुर्दशा ? इससे तो यहाँ योग्य गुरु के आगे पापों की आलोचना करके शल्य हटा देना क्या बुरा है ?' पापों के प्रति हृदय-सदन का महत्त्व : (३) तीसरी यह बात जरुरी है कि उन पापों के लिए हृदय रोना चाहिये । सिर्फ पश्चात्ताप करके बैठे, तो मन में इतना ही होता है कि 'यह पाप मैंने बहुत बुरा किया। यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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