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ठीक नहीं हुआ।' इससे पश्चात्ताप तो होता है, परन्तु दिल में हलचल कहाँ मचती है ? सिर्फ पश्चात्ताप करने से पाप के अनुबन्ध नहीं टूटते । इसके लिए तो अन्तर्वेदना हो, दिल रो पड़े, पारावार खेद हो, हृदय बार-बार गद्गद् हो उठे, स्वयं पर इस पाप के लिये नफरत हो, यह जरुरी है। झांझरिया मुनि के घातक राजा ने ऐसे उत्कृष्ट हृदय-रुदन के साथ पापघृणाआत्मघृणा की, तो इससे पापानुबंध, पाप व देहासक्ति-देहाध्यास आदि ऐसे टे कि वीतराग बनकर उन्होंने केवलज्ञान पाया।
समवसरण से देर से लौटने पर गुरुणी द्वारा दिये गये उपालंभ से मृगावती साध्वी को ऐसे द्रवित दिल, अन्तर्वेदना व हृदयरुदन के साथ पापघृणा व आत्मघृणा हुई कि तुरन्त केवलज्ञान पाया। अत: पापपश्चात्ताप के साथ हृदय का रुदन जरुरी है। इसमें से नया सत्पुरुषार्थ अद्भुत जागता है।
लोभदेव को ऐसी तीव्र अन्तर्वेदना व हृदय-रुदन के साथ पाप का पछतावा जगा है, इसीलिये आचार्य भगवंत के आगे पापों के नाश के लिये अग्नि में जल मरने, गंगा में डूब मरने या पर्वत पर से छलांग लगाने की तैयारी बताता है।
परन्तु आचार्य भगवंत कहते हैं, - 'महानुभाव! सुलगती हुई चिता में तो शरीर जल जाये, यानी शरीर का कचरा जले, परन्तु आत्मा का कर्म का कचरा किस प्रकार जले? पानी में डूबने से शरीर साफ होता है, परन्तु आत्मा कैसे स्वच्छ हो? पर्वत पर से गिरने पर हड्डियां टूट जाती हैं, परन्तु आत्मा के पाप व कर्म कैसे टूटें? इसीलिये यह तो तेरी भ्रमणा है कि ऐसा कुछ करके पाप की शुद्धि करूँ।'
आचार्य महाराज के कहने का तात्पर्य यह है कि जिस वस्तु में शुद्धि-निर्मलता करनी हो, उसीमें शुद्धि के प्रयोग किये जाने चाहिये । दायाँ पांव गंदा हो व साबून बायें पांव पर लगाया करे, तो उससे दायाँ पांव थोड़े ही साफ होता है ? आत्मा की मलिनता निकालनी हो और इसके लिये शुद्धिप्रयोग शरीर पर किया करे, तो आत्मा की मलिनता थोड़े ही चली जाती है ? आत्मा के कर्म तोड़ने हों और शरीर को खाई में पटके, इससे तो शरीर की हड्डियाँ टूटती हैं, आत्मा के कर्म नहीं टूटते ।
लोभदेव पूछता है, 'प्रभु ! तो फिर मैं पाप तोड़ने के लिये क्या करूँ ?' घोर काले पापों को भी तोड़नेवाले १० उपाय :
आचार्य महाराज कहते हैं, 'देख, देवानुप्रिय ! आत्मा पर जो गाड़े, काले पाप-कर्म पहले जमा किए हुए हैं, वे सम्यक्त्व सहित तप करने से अवश्य साफ हो जाते हैं। इस तप में अनेक बातें आती हैं । इसीलिये यदि तू ऐसे पाप-कर्मों को तोड़ना चाहता है, तो (१) लोभ छोड़ दे, (२) गुरु का परम विनय धारण कर के, (३) साधुसेवा-वैयावच्च तथा (४) शास्त्र-स्वाध्याय में लग जा, (५) क्षमा को धारण कर, (६) कायोत्सर्ग-ध्यान कर, (७) दूध-दही-घी-शक्कर आदि विगईयों का त्याग कर; (८) भोजन के द्रव्यों में
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