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________________ बीच चबाया जाता है। वेदना का कोई पार नहीं ! परन्तु कर्म द्वारा दी गयी पीड़ा से कौन बचाये ? दुर्जन मित्र के संग से दाक्षिण्य व लोभ में पड़ा, पुण्य कमजोर हुआ व घोर पाप उदय में आया। मित्र के द्वारा समुद्र में धक्का मारने से मगरमच्छ की दाढ़ के बीच चबाया जाकर मरा। भद्रसेठ मरकर कहाँ गया ? फिर भी भद्रसेठ इतना नसीबदार था कि ऐसी वेदना के वक्त भी उसे रौद्रध्यान नहीं हुआ, काली लेश्या नहीं हुई, नहीं तो यहाँ भयंकर वेदना सहने पर भी मरकर उस बकरे की तरह नरक में जाता। इसी प्रकार ऐसी कोई ऊंची शुभ लेश्या नहीं, स्वयं के दुष्कृत की गर्दा, उच्च क्षमाभाव व अन्तिम आराधना नहीं की, जिससे ऊंचे वैमानिक देवलोक में जाय। फिर भी भद्रक भाव से अकामनिर्जरा बहुत की, जिससे मरकर व्यन्तरनिकाय में अल्प ऋद्धिवाले राक्षस के रुप में जन्मा। 'अकामनिर्जरा' अर्थात् सहने का अवसर आये, तब स्वेच्छा से निर्जरा यानी कर्मक्षय करने की कामना नहीं, परन्तु सहन करने का अवसर आया, ऐसे तीव्र दुर्ध्यान के बिना पराधीनता से चुपचाप सहन कर ले, ऐसी अकामनिर्जरा की भी कैसी महिमा है ? परन्तु वहाँ यदि तीव्र हाय-हाय का आर्तध्यान या सामनेवाले को मारने का रौद्रध्यान आया, तो तिर्यंच-नरकगति स्वागत के लिए तैयार ही समझो। यहाँ कोई वेदना, अपमान, अपयश सहन करने का चाहे बहुत ज्यादा न हो, किन्तु मन यदि हाय-हाय, हिंसादि के दुर्ध्यान में पड़े तो कर्म को शर्म नहीं, तिर्यंचगति-नरकगति के कर्म चिपके ही समझो और कर्म भी वहीं घसीटकर ले जाता है। इसमें किसीका कुछ नहीं चलता। जीवन जीते हुए प्रति क्षण इस हाय-हाय व हिंसा आदि के चिन्तन, दुर्ध्यान से बचने के लिए सावधान रहना है। भद्रसेठ तीव्र वेदना में भी ऐसे दुर्ध्यान से बचा और मरकर राक्षस हुआ । राक्षस अर्थात् देवता, उसे जन्म से ही अवधिज्ञान या विभंगज्ञान होता है। इस ज्ञान से उसने देखा कि 'मैं कहाँ से आया?' इसमें उसने देखा कि 'लोभदेव ने द्रोह-कपट करके स्वयं को समुद्र में धकेला व मगरमच्छ के जबड़े में क्रूरता से चबाये जाने की घोर वेदना सहन करते हुए मरकर यहाँ आया हूं'। इससे उसे लोभदेव के प्रति जोरदार गुस्सा चढ़ा । मैंने उसे इतना स्नेह दिया, उसकी भी उसने परवाह न की? मेरे उपकार याद न किये? मेरी सज्जनता की ओर भी न देखा? सचमुच, सज्जन दुर्जन पर चाहे जितने उपकार क्यों न करे, दुर्जन का स्नेह तो हल्दी के रंग जैसा है, धूप आयी नहीं कि उड़ा नहीं ! इस दुष्ट की कृतघ्नता व द्रोह तो अक्षम्य है !' भद्रसेठ राक्षस की क्रोधाग्नि जोरदार भड़क उठी। वह सोचता है - अरे ! इस पापी ने सोचा कि मैं इसे समुद्र में धकेलकर अकेला ही सारा धन ले लुं । अब मैं ऐसा करूं कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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