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________________ ज्ञानी संसार को असार क्यों कहते हैं ? इसका एक कारण यह भी है कि संसार के पदार्थ झूठी स्वार्थ-लालसा जगाकर माया-मृषा के घोर पाप कराते हैं, अज्ञान से अंध बने जीव को इसकी सूझ नहीं पड़ती। बिल्ली दूध का कटोरा देखती है, परन्तु पीछे कोई लाठी लेकर खड़ा है, यह नहीं देखती। इसी तरह अज्ञानी जीव तात्कालिक तुच्छ स्वार्थपूर्ति देखता है, परन्तु पीछे दीर्घ दुर्गति के भय नहीं देखता । इसका नतीजा क्या? वहाँ बिल्ली को थोड़ा-सा दूध चाटने तो मिलता है, परन्तु बाद में डंडा ऐसा पड़ता है कि बेचारी की कमर ही टूट जाय या सर फूट जाय। इसी प्रकार यहाँ माना गया स्वार्थ पुण्य-बल से सध जाय, परन्तु परलोक में भयंकर दुःख व विडंबना से भरे तिर्यंचगति के अवतार मिलते हैं। अरे! इस जीवन में भी सच्चा सुख कहाँ है ? माया-मृषा का सेवन करनेवाले को कितनी चिन्ता रहा करती है ! क्योंकि उसे इस बात का भय होता है कि कहीं मेरी कपटलीला कोई जान न पाये ! किसीको पता न चल जाय कि मैं कैसे खेल खेल रहा हूं! इस चिन्ता के साथ ही साथ यह चिन्ता भी लगी रहती है कि बातें कैसे बनायी जाय ! कहने का तात्पर्य यह है कि झूठ-कपट करनेवाला कभी चैन से नहीं जी सकता । शायद उसका दांव सफल हो जाने से, वह चैन की सांस भी ले, परन्तु याद रखिये कि - माया की कमाई स्वच्छ सुख भोगने नहीं देती। अभिमान का बाह्य व आभ्यन्तर असर : अभिमान आदि कषायों के दीर्घ परिणाम परलोक में तो बुरे हैं ही, परन्तु यहाँ भी इनके परिणाम खतरनाक हैं । इस जीवन में ही आपको दिखेगा कि अभी किये गये अभिमान का क्या फल मिलता है ! परन्तु यह तो कोई बाह्य दुःखद प्रसंग उपस्थित होने पर ही हमारी नजर में आता है । वास्तव में तो अभिमान का आभ्यन्तर असर भी बुरा ही है। अभिमान का नशा चढ़ने के बाद तत्त्व-चिन्तन का दरवाजा बन्द हो जाता है । उस वक्त कोई उसे तत्त्व की बात समझाने बैठे, तो उसके गले नहीं उतरती । क्योंकि अभिमान ने दरवाजा ही बन्द कर दिया है। जमालि को अभिमान चढ़ा था कि 'मुझे जो सच लगे, वही सच' । स्वयं गौतम गणधर ने समझाने का प्रयास किया, परन्तु वह कहाँ समझनेवाला था? इसी प्रकार माया में सच बात समझने का दरवाजा ही बन्द हो जाता है। मायादित्य ने पछाड़ तो जोरदार खायी। माया करने गया, तो स्वयं के पास दस रत्नों के बदले दस कंकर आये । क्या यह पछाड़ कुछ कम है ? फिर भी माया कषाय कुछ समझने नहीं देता। मायादित्य ने कपट-रुदन करके एकदम बनावटी बात की, तब सरल-हृदयी स्थाणु उसे सच मानकर हमदर्दी जताता है कि - 'भाई ! क्या सचमुच तुझे इतना दुःख सहना पड़ा? चल, अब इसमें से छूटकर मुझे मिल तो गया! अच्छा हुआ! चल, अब हम घर जायें।' क्या मायादित्य को यह बात अच्छी लगेगी ? नहीं ! क्योंकि मायाने हृदय में For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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