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उठा। हाय ! अब मेरा प्रिय मित्र कभी नहीं मिलेगा?'
देखिये, मायादित्य कितनी बनाकर बात कर रहा है। बारह दिन का अन्तर पड़ा, उसका हिसाब देने के लिये नौ दिन की कथा तो मन से बनाकर कह दी। उसमें भी बीचबीच में ऐसी बात करता है, मानों मित्र के वियोग में तड़प रहा हो । स्थाणु भला आदमी है, वह उस पर विश्वास रखकर यह सब सच मानकर दुःख व्यक्त करता है। 'अरे मित्र ! तुझे इतना दुःख सहना पड़ा? हाँ, यह बता, तू वहाँ से छूटा कैसे?'
मायादित्य ने बताया - 'दोस्त ! यह समझ कि शायद तुझसे मिलना नसीब में लिखा होगा, इसीलिये वहाँ से छूट पाया । परन्तु वह भी कुछ आसान नहीं था। मैंने उस अच्छी स्त्री से पूछा - है इसमें से छटने का कोई उपाय?'
तब उस स्त्री ने बताया, 'एक उपाय है। नौंवें दिन के पहले वे सब नदी पर नहाने के लिए जायेंगे। सिर्फ एक चौकीदार रहेगा। उस वक्त यदि कोई न देखे, इस तरह तुम भाग सको, तो बच जाओगे।'
यह सुनकर मैंने राहत की सांस ली कि 'चलो, चाहे जैसे भी उस दिन यहां से भागने का अवसर मिलेगा।' फिर तो कैदखाने में ज्यों-त्यों आठ दिन बिताये । तेरे बिना सब कुछ खाने को दौड़ रहा था। नौवां दिन आया । सब नहाने के लिए गये। पहले तो मैंने चौकीदार की द्रष्टि पड़ने पर ऐसा ही दिखावा किया, मानों मैं निश्चिन्त होकर वहीं पड़ा रहनेवाला होऊं। उसे भी मेरे प्रति कोई शंका नहीं थी, इसलिये वह थोड़ा इधर-उधर हुआ कि मैं तुरन्त वहां से भाग गया। फिर तो जैसे मुझे नवजीवन मिल गया हो, इतना आनंदित हुआ ! परन्तु तेरे बिना चैन कैसे पाना? तूने भी मेरी तलाश तो की ही होगी, न मिलने से निराश होकर तू चला गया होगा। इसलिए मैं भी तुझे खोजते-खोजते, हर गांव में पूछताछ करता, छान-बीन करता । इतने में किसीने मुझे बताया कि 'ऐसा-ऐसा एक आदमी इस रास्ते से गया है।' इतने समाचार पाते ही मैं उतावले कदमों से चलने लगा और मेरे अहोभाग्य से तू मुझे यहाँ मिल गया। तेरे मिलने से मुझे मानों सब कुछ मिल गया।'
तुच्छ स्वार्थ-लालसा :
कितना दंभ ! कितना बनावटीपन ! कितनी माया ! माया के साथ बोला गया झूठ बेबुनियादी महल बनाकर महल जैसा दिखावा करता है। मायादित्य जो कुछ भी बोला, वह सरासर झूठ ही था। ऐसा कुछ हुआ ही नहीं था, परन्तु वह मायावी तो स्थाणु के दिल में यह बात जमाना चाहता था कि 'मैं कोई बुरे इरादे से भाग नहीं गया था, परन्तु विकट संयोग के पराधीन बनकर बहुत दुःखी हुआ । इसलिये उसने माया से मृषाभाषण किया। थोड़े-से स्वार्थ की लालसा में इन्सान कैसे घोर माया-मृषा के पाप करता है !'
जगत के पदार्थों की स्वार्थ-लालसा ही बुरी है कि जो ऐसे दीर्घ दुर्गति की परंपरा का सर्जन करनेवाले मायामृषा के पाप कराती है।
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