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________________ भद्र सेठ एक विचारक आत्मा है। वे लोभदेव से कहते हैं - 'भाई! अर्थ व काम ऐसी चीज है कि इनके जितने मनोरथ किये जायें, उतने संकल्प-विकल्प उठते हैं। ऐसे मनोरथ किये ही क्यों जायें ? यहाँ आकर तूने अच्छी कमाई की है, तो अब स्वदेश में जाकर अच्छा दान दे, स्नेही वर्ग को संतोष दे। इतना सारा कमाने के बाद अब लोभ क्यों करता है?' __ लोभदेव कहता है, 'भाई ! आलसी व्यक्ति बैठा रहे, तो अपार लक्ष्मी भी कम हो जाती है ; अन्त में तिजोरी का तल ही दिखने लगता है। उद्यम व साहस करते रहें, तो लक्ष्मी टिकती है। ऐसा कहा जाता है कि लक्ष्मी सदा विष्णु के संग रहती है, फिर भी यदि विष्णु आलसी बने, तो लक्ष्मी उसे भी छोड़ देती है। जिस प्रकार स्त्री डरपोक व निरुद्यमी पति पर नाराज होती है, उसी प्रकार लक्ष्मी भी ऐसे व्यक्ति पर प्रसन्न नहीं रहती। इसीलिये चलो, हम रत्नद्वीप चलें।' ___ 'बंध ! चाहे जितना साहस व उद्यम करें, पाताल में उतर जायें, परन्तु नसीब में जितना हो, उससे अधिक कुछ नहीं मिलता । देख, मैं सात बार समुद्र में उतरा, प्रवास किये, परन्तु भाग्य से अधिक कुछ न मिला। इसीलिये अब लोभ छोड़ दे।' लोभदेव को लोभ ऐसा जगा है कि इतना समझाने पर भी अन्तर की कुलबुलाहट नहीं मिटती। उसे तो रत्नद्वीप की कमाई ही नजर आ रही है, इसीलिये उसे तो अब रत्रद्वीप की और दौड़ना है। बेचारा यह नहीं जानता कि 'लंबू के साथ दौड़ने जाय, वह मरे नहीं, तो बीमार हुए बिना नहीं रहता।' उस पर तो एक ही धून सवार हो गयी है कि मैं भी इस तरह क्यों नहीं कमा सकता? तब भद्र सेठ को कहता है कि, 'आपकी बातसही है कि आप सात बार समुद्री-सफर करके आये, फिर भी अधिक नहीं मिला । परन्तु क्या पता आठवीं बार में भाग्य लाभ देनेवाला हो, तो? इसीलिये भाग्य खुलने के लिए भी उद्यम चाहिये । घबराओ मत, अब तो मेरा भाग्य भी आपके साथ है न? तो चलो, रत्नद्वीप चलें।' . लोभदेव ने भद्र सेठ को लालच दिखाकर तैयार कर दिया। भद्रसेठ ने कहा - 'तो ठीक है। परन्तु मेरा नसीब कम है, इसलिये जहाज में मालिक तो तू ही बनना।' लोभदेव ने मंजूर किया। जहाज तैयार करके उसमें माल-असबाब भरा, अच्छे निमित्त देख, इष्टदेव की पूजा-भक्ति की, ब्राह्मणों को भोजन कराया, काष्ठ लिये, पानी के भाजन भरे और जहाज चलाया। उस वक्त वार्जित्र बजने लगे, शंख फूंके गये, मांगलिक किया गया, 'जय हो, जय हो', ऐसे आशीर्वाद दिये गये। पाल (सढ) में हवा भरी गयी और जहाज चल पड़ा महासागर में। सागर में जहाज चला जा रहा है। लोभदेव के लोभमूढ़ मन में विचार आता है कि 'वाह ! लाभ तो जोरदार होगा। चलो, मैंने जो सोचा था, वह हो गया । रत्नद्वीप पहुँचकर व्यापार करने से अच्छी कमाई हुई। वापस सोपारक नगर आते समय लोभदेव को विचार आया कि कमाई तो बहुत हुई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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