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है परन्तु यह भद्रसेठ भागीदार बनकर आधा हिस्सा ले लेगा, यह तो ठीक नहीं । इतनी सारी लाखों की संपत्ति जाने कैसे दे दं? यहाँ सागर के बीच तो ठीक मौका है। यदि उसे चाहे जिस तरीके से समुद्र में गिरा दूं, तो इस सारे धन का मालिक मैं अकेला ही बन जाऊं' । कैसी अधम विचारधारा ? इसका कारण है - लोभ । ।
लोभ की आज्ञा में रहनेवाले पामर जीव खराब आचरण तो फिर भी कम करते होंगे, परन्तु खराब विचार तो ढेर सारे करते हैं । इसीसे भारी पापसंस्कारों की विरासत जमा होती है।
यह बात भूलने जैसी नहीं कि लोभ से प्रेरित होकर जितने पाप-विचार किये जाते हैं, उतने पाप-कर्म बंधते चले जाते हैं। साथ ही साथ पाप-संस्कार भी बढ़ते ही जाते हैं। इसीलिये भवान्तर में पापकर्म के फल के रुप में दुःख तो मिलेगा ही, परन्तु पाप संस्कारों की जो विरासत वहाँ ले गये, उसके फल स्वरुप पापी विचार-वर्तन व वाणी कैसे व कितने चलेंगे?
इतने विचार से ही वह रुका नहीं। वह उठा व भद्रसेठ के पास जाकर कहने लगा,
'भाई ! अपना व्यापार तो काफी हो चुका । अब एकान्त में बैठकर थोड़ा हिसाबकिताब कर लें। कहाँ बैठेंगे?'
__ भद्रसेठ सरल हृदयवाला है। वह कहता है - 'हाँ, चलो न! कहाँ बैठेंगे? लोभदेव कहता है - 'देखो, वह पांव धोने का झरोखा है न, वहाँ बैठेंगे?'
भद्रसेठ को इसमें लोभदेव के कुटिल हृदय की कोई भनक न आयी । क्योंकि आज तक लोभदेव को पैसों का लोभ था, इसमें भद्रसेठ के सहयोग की जरुरत थी, इसीलिये उसके साथ सरलता से व्यवहार करता था। इसीलिये कपट की गंध कहाँ से आये ? परन्तु अब लोभदेव को पैसे मिल गये, खुद का काम हो गया, इसलिये अब तो भद्र सेठ के हिस्से के पैसों का भी लोभ जगा है, तो भला क्यों सरलता रखेगा? अपने हिस्से में भी कोई कम नहीं मिला है ? फिर भी मित्र के साथ धोखा ! सचमुच, लोभ भयंकर है।
लोभ इन्सान को गुंडा बनाता है : भद्रसेठ सागर में ....
लोभदेव द्वारा बिछाये गये जाल में भद्रसेठ फंस गया। ज्यों ही वह झरोखे पर बैठा, लोभदेव ने पीछे से धक्का दिया । भद्रसेठने कटहरे को कसकर नहीं पकड़ा था, इसलिये सीधा गिरा समुद्र में । देखिये लोभदेव की दुष्टता ! उसे बिल्कुल दया न आयी। उसने सेठ के प्रति कृतज्ञता भी न दर्शायी । अति निर्दय व कृतघ्न बनकर मित्र का विश्वासघात करके उसे समुद्र में गिराया। भला क्यों ? लोभ के कारण !
लोभ निर्दय बनाता है :(१) अच्छा खाने के लोभ में आज अनंत जीवमय आलू, प्याज आदि कंदमूल
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