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खाये जाते हैं न? कहाँ रही अनन्त जीवों की दया ? अब तो अंड़े भी खाये जाने लगे हैं। ईरानी होटलों में अब जैन भी जाने लगे हैं। कहाँ रही पंचेन्द्रिय जीवों की दया? जैन के रुप में जन्म लेने की क्या सार्थकता? एक मात्र जैनधर्म ही कंदमूल में अनंत जीव बताता है। ऐसा ज्ञान मिलने के बाद भी उन जीवों की दया नहीं ? कारण? खाने का लोभ ।
(२) पैसों के लोभ में आज महा पापमय कर्मादान के धंधे, कारखाने व उद्योग कितने चल रहे हैं ? इनमें जीवों के प्रति दया भाव कहाँ रहा? आज तो स्वयं की आर्थिक शक्ति न होने पर भी लोगों को ऐसे धंधे करने का शौक लगता है और ऐसे कारखानेवाले या व्यवसायवालों को देखकर कहते हैं - 'कितने पुण्यशाली हैं ये ! इसमें निर्दयता-भरे व्यवसाय की अनुमोदना ही हुई न ? क्या ऐसे धंधों में डूबे हुओं को पुण्यशाली कहा जाय ? या पुण्य के भंडार को खाली करके पाप की तिजोरी भरनेवाले कहा जाय? भयंकर जीवहिंसा के धंधे करनेवाले पाप के संचय के सिवाय और क्या पायें ? पुण्य पूरा करके पाप की खरीदी ही न? ऐसे धंधे देखकर खुशी व्यक्त करें व ऐसा धंधे करनेवाले को पुण्यशाली मानें, तो भी पाप का संचय ही होगा न? वहाँ जीवों की दया का विचार ही कहाँ रहता है ? कौन करता है यह? पैसों का लोभ ।
लोभ तो कई प्रकार के होते हैं ; वह एक या दसरी रीति से निर्दय बनाता है। वहाँ पर सामनेवाले के प्रति एक जीव के रुप में दया न रहे, तो भाई, पिता या मित्र के रुप में स्नेह तो रहे ही कहाँ से? आज घर-घर में लोभ के कारण स्नेह चूरचूर हुआ नजर आयेगा।
(लोभ से कृतघ्नता :
लोभ खतरनाक है। वह जीव को कृतघ्न बनाता है और विश्वासघात भी करवाता है। भद्रसेठ ने लोभदेव को आश्रय व सहयोग देकर कितना उपकार किया था ! परन्तु लोभदेव लोभ में पड़कर इस उपकार को पूरी तरह से भूला बैठा व ऊपर से भद्रसेठ का अहित करने में कोई कसर न रखी । कैसी कृतघ्नता ! आजकल जो लड़के माँ-बाप से विभक्त होकर उनके सामने नहीं देखते, वे क्या कर रहे हैं ? मां-बाप के उपकार को भूल रहे हैं या और कुछ ? जिस भागीदार के सहयोग से दुकान जमी, व्यापार बना, उसे ही कोई बहाना बनाकर साझेदारी से अलग किया जाय, इसमें कृतज्ञता कहाँ रही?
(जीवन में दो सावधानियाँ :
उपकारी की कृतज्ञता व उपकृत की मैत्री-कस्गा :
'लोभ के कारण इन्सान कृतज्ञता भूल बैठता है व कृतघ्न भी बन जाता है' -- यह समझनेवाला दो प्रकार से सावधान रहता हैं,
(१) एक तो, स्वयं उपकारियों के उपकार को नहीं भूलता, और (२) स्वयं के उपकारों को भूलनेवाले के प्रति मैत्री व करुणा का चिन्तन करता
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