________________
है । उसके प्रति स्वयं का स्नेह नहीं सूखता और 'इस बेचारे को सद्बुद्धि मिले', ऐसी करुणा पैदा होती है।
जगत के जीवन में यह सावधानी रखने की आवश्यकता है, क्योंकि दुनिया के बीच रहना पड़ा है, इसलिये विविध जीवों का संपर्क तो होने ही वाला है । इसीलिये लोभवश उपकारियों को नहीं भुलाया जाय, स्वयं से जो उपकृत हो, उसकी ओर से उपेक्षा देखकर दिल में से मैत्री व करुणा का झरना नहीं सूख जाय . यह सावधानी रखनी है । लोभदेव लोभ में भान भूल बैठा है। वह मित्र भद्रसेठ की कृतज्ञता तथा उसके प्रति मैत्रीभाव भी भूल गया, निर्दय व कृतघ्न बना और समुद्र में गिरा दिया ।
...
लोभदेव का ढोंग :
जहाज तेज गति से चल रहा है । थोड़ी देर में तो काफी आगे निकल गया । अब लोभदेव चिल्लाने लगा 'अरे ! दौड़ो, दौड़ो । भद्रसेठ समुद्रमें गिर पड़े है, और अब मगरमच्छ उन्हें अपने मुंह में निगल गया है। अरे दौड़ो, दौड़ो । '
यह चीख-पुकार सुनकर लोग दौड़े आये और देखने लगे, क्या हुआ, कहाँ से गिरे ? नीचे समुद्र में देखने पर दूर एक मगरमच्छ भी देखा और लोभदेव से पूछा 'कहाँ से गिरे ?'
-
लोभदेव रोते-रोते बोला- 'इस झरोखे के पास खड़े थे । न जाने क्या देखने गये कि नीचे गिर गये ! मेरा इतना अच्छा मित्र गया, अब मैं भी जीकर क्या करूं? मैं भी गिर जाऊं समुद्र में'.. इतना कहकर लोभदेव जहाज के झरोखे की ओर दौड़ने का ढोंग करता है । ढोंगी को क्या नहीं आता ? सच्चे से भी ज्यादा दिखावा आता है । इसीलिये ऐसा नाटकीय दिखावा करनेवाले को देखकर सावधान बनना पड़ता है, नहीं तो ठगे जाने का अवसर आता है।
आत्मविकास-अध्यात्मभाव दंभत्याग से शुरुहोता है । इसीलिये 'अध्यात्मसार' शास्त्र में पहले दंभत्याग का उपदेश दिया गया है और बाद में मिथ्यात्व-त्यागादि बताये गये हैं। सच्चा अध्यात्मभाव जगाने के लिये दंभ - माया-कपट को छोड़ना ही पड़ता है । 'अध्यात्म' की व्याख्या करते हुए कहा गया है -
'गंतमोहाधिकारणामात्मानमधिकृत्य
या
प्रवर्तते क्रिया शुद्धा, तदध्यात्मं जगुर्जिनाः
अर्थात् ‘स्वयं के ऊपर के मोह के वर्चस्व को हटाकर यानी मोह के अधिकार को दूर करके आत्मा के उद्देश्य से जो शुद्ध क्रिया प्रवर्ते, उसे जिनेश्वरदेव अध्यात्म कहते हैं',... इसमें क्रिया का उद्देश्य कोई सांसारिक सुख-संपत्ति, मान-सन्मानादि लूटने का नहीं, किन्तु आत्महित साधने का बताया गया है । यदि वह रखा हो, तो वहां दंभ - कपट किस प्रकार टिक सकता है ? दंभ-कपट में तो सांसारिक आशंसा है, वहाँ आत्महित का लक्ष्य
१४७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org