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________________ रहे ही कैसे ? इसीलिये यदि अध्यात्म भाव की जरुरत हो, आत्मविकास साधना हो, तो दंभ छोड़ो । लोभदेव का समुद्र में पड़ने का दंभ : पहले तो लोभदेवने दंभ करके भद्रसेठ को समुद्र में धकेला और अब दंभ से शोक करता है - 'हाय ! मेरा मित्र गया ! अब मैं भी समुद्र में गिरकर मर जाऊंगा।' कौन पहचान सकता है इस दंभ को ? लोग तो सच ही मान बैठे कि 'मित्र वियोग के दुःख से यह जरुर समुद्र में छलांग मार देगा।' लोगों ने उसे पकड़ा व कहा अरे भाई ! ऐसा करने से भद्रसेठ थोड़े ही लौट आयेंगे ? 'इसीलिये अब तो तुम धीरज धरो, हिम्मत रखो। मरने की बात मत करो । एक तो भद्रसेठ गये और अब हम तुम्हें भी खो बैठें ?' इस प्रकार समझाकर लोगों ने लोभदेव को रोका | बस, दंभी लोभदेव को इतना ही चाहिये था कि खुद साहुकार दिखे व लोगों को लगे कि 'भद्रसेठ ऐसे ही अचानक गिर पड़े और मित्र के गिरने से दुःखी होकर यह भी गिरने जा रहा है।' जो चाहता था, वही मिल गया, इसलिये लोभदेव अन्दर से तो खुश हो रहा है कि 'वाह! काम बढ़िया हो गया ! भद्रसेठ मर गया ! अब उसका सारा माल अपना ही है ! दोनों ओर से कमाई ही कमाई !' लोभदेव को कितने पाप ? लोभदेव ऐसे अधम विचारों से क्या कर रहा है ? घोर पाप की अनुमोदना, काली लेश्या, रौद्रध्यान, धन का राग, मन में तनिक भी दुष्कृत गर्हा नहीं, ऐसे कई अनर्थों को वह बुलावा दे रहा है । आप ही गिनती कीजिये कि उसने कितने पाप किये ? (१) मित्र का भयंकर द्रोह, विश्वासघात, (२) मित्र मर जाये, इस इरादे से समुद्र में धक्का मारना, (३) मौत भी कैसी ? मगरमच्छ के मुंह में चबाये जाने की भयंकर वेदना के साथ ! (४) जहाज के यात्रियों के साथ ठग-बाजी, (५) ऐसे घोर कुकृत्य से मिले धन पर अति राग, (६) इन सब पापों की जोरदार अनुमोदना (७) इसका अर्थ यह है कि पूर्व में पाप करके तो घोर कर्म बांध लिये, परन्तु अब उनकी वारंवार अनुमोदना से ऐसे ही नये-नये घोर कर्मों का उपार्जन कर रहा है। कितने अनर्थ ! दूसरों के पाप की हमारे द्वारा अनुमोदना : सिर्फ स्वयं के लोभ से ही नहीं, परन्तु दूसरों के लोभ की हम अनुमोदना करें, तो भी उसके पाप-उपायों की अनुमोदना के कर्म हमें बंधते हैं । उदाहरण के तौर पर, किसीने झूठ - अनीति करके आरंभ-समारंभमय कारखाने लगाकर लाखों-करोड़ों कमाये, अभी भी रोज दो-पांच लाख रुपये कमा रहा है, उसे देखकर हमें लगे कि 'कितना नसीबदार है ! इतने पैसे कमाये, अभी भी कितना कमा रहा है !' हम जानते हैं कि वह किस तरीके से कमाई कर रहा है, फिर भी उसकी कमाई की अनुमोदना करते हुए हम उसके पीछे सेवन १४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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