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________________ किये गये झूठ, अनीति व हिंसा की भी छुपे ढंग से अनुमोदना कर रहे हैं । उसकी कमाई में से हमें थोड़े ही कुछ हिस्सा मिलनेवाला है ? फिर भी हिंसादि की अनुमोदना का पाप हम अपने सर पर लेते हैं । उदाहरण के लिये :- हमने देखा कि किसी आदमी ने अपने भाई या दूसरे के साथ झगड़ा करके जमीन हडप ली व उस पर बंगला बनवाया । वह देखकर यदि हमें ऐसा लगे कि - ___'वाह ! कितना भाग्यशाली है ! कितना आलीशान बंगला बनवाया है !' इस अनुमोदना में हमारे सर पर क्रोध, कलह व बंगला बनवाने के महा आरंभ-समारंभ की अनुमोदना का पाप भी छुपे ढंग से चढ़ता है ! 'पापों की अनुमोदना से स्वयं पाप का आचरण करने जितने अशुभ कर्म बंधते हैं ।' विचार कीजिये कि किसीके बंगले की अनुमोदना करने से उसके पीछे किये गये पापों की अनुमोदना और कर्मबंध हमें कितने लगते हैं ? बंगले के साथ हमें कुछ लेना-देना है ? सिर्फ एक दिन के लिए भी क्या वह हमें उसका बंगला रहने के लिए देता है ? नहीं, फिर भी कितने अनर्थ स्वयं के सर पर हम ढोते हैं ! मूर्खता की कोई हद भी है ? । 'दूसरों को हुए लाभ की अनुमोदना करने पर इस लाभ के पीछे किये गये ढेर सारे पापों की अनुमोदना छुपे ढंग से हो जाती है और इससे स्वयं पाप करने जितने कर्मबंध होते हैं।' ___यह विचार यदि हमेशा रखा जाय, तो ऐसे लाभ की अनुमोदना करने से बचा जा सकेगा । ऐसी अनुमोदना में यह मूर्खता दिखती है कि 'इस लाभ से मुझे तो कुछ मिलनेवाला नहीं है, तो मैं इसकी अनुमोदना करके नाहक क्यों इसके पीछे किये गये ढेर सारे पापों को अपने सर पर ढोऊ ?' स्वयं की ऐसी कमाई में यह मूर्खता भी दिखती है कि एक बार तो पाप करके यह लाभ पा लिया, परन्तु अब इसकी अनुमोदना कर-करके, वारंवार पाप-सेवन से नये-नये पाप लगते हैं, इस प्रकार वारंवार नये-नये पाप मोल लुं?' . कहने का तात्पर्य यह है कि पापाचरण से स्वयं को अथवा दूसरे को धन आदि का लाभ होते दिखा, इस लाभ को देखकर बार-बार अनुमोदना करने जैसी नहीं, क्योंकि ऐसे लाभ की अनुमोदना अर्थात् उसके असत् उपाय की अनुमोदना और उससे बेहद कर्मबंध । जीव असंख्य वर्षों के नरकादि जैसे पाप कर्म का क्यों उपार्जन करता है ? इसमें यह भी एक जबरदस्त कारण है कि इस छोटे-से जीवन में भी स्व अथवा पर के धनलाभ पर जीव को वारंवार खुशी होती है और उसके लिये किये गये पाप-उपायों की छुपे रुप में अनुमोदना कर-करके प्रति समय अपार कर्मबंध करता है। आप सोचिये कि ये सांसारिक धन-लाभ आदि कैसे बड़े राक्षस हैं कि जो जीव को लुभाते हैं कि 'तू आ जा, फंस जा', फिर जीव के पुण्य को निचोकर कैसी ढेर सारी कर्मबंध की पीड़ा होती है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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