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________________ प्र. - ऐसा हारे जीवन में कदम-कदम पर चलता है, तो इससे किस प्रकार बचा जाय ? बत्तने का एक महान उपाय यह है कि सम्यग धर्मशास्त्रों का वारंवार श्रवण, अध्ययन व रतन-मनन करना चाहिये । इससे, (१) जीव को अन्दर से ही धनलाभ के प्रति जाती है, वैराग्य जग जाता है, जिससे धनलाभ की अनुमोदना नहीं होती । ( २ ) पाप - उपायों के प्रति अत्यन्त ग्लानि रहा करती है, जिससे उसकी भी अनुमोदना का नहीं रहता तथा (३) चित्त शास्त्र की बातों में लगा रहने से पापअनुमोदना आदि के विचार करने के लिये उसे फुरसत ही नहीं मिलती । उ. - वारंवार चलनेवाली याप अनुमोदना से बचने के लिए तीन बातें हैं - ९. वैट, २ पाल उपायों के प्रति अत्यन्त ग्लानि, व ३. शास्त्र-रटन । भद्रसेर लोग देव के धक्के से समुद्र में औधे सर पड़ा। महासागर में इस तरह गिरना यानी ? बहुत गहराई में जा फिर से ऊपर आया, वापिस डूबा व ऊपर आया, सागर की लहरों के धर-उधर उछलने लगा । इतने में तो एक विशालकाय मगरमच्छ ने उसे निगल लिया ! अर में इतनी ताकत नहीं रही थी कि मगरमच्छ का स्पर्श होते ही तैरकर दूर भागे ! मगर के मुंह में जाते ही बेचारा भद्रसेठ उसकी दाढ़ के बीच जकड़ गया व चबाया जाने लगा। उस वक्त असह्य वेदना होने लगी। गाड़ी का दरवाजा बंद करते हुए सिर्फ अंगुली का अग्र भाग भी उसमें दब जाय, तो कितनी वेदना होती है ? तो पूरा का पूरा शरीर, मुंह. सर व मर्मस्थान मगरमच्छ की दाढ़ के बीच अमरुद की तरह चबाया जाय, उसकी वेदना कैसी दारुण होगी ? मगरमच्छ की दाढ़ के बीच घूरे के पूरे चबाये जाने की पीड़ा तो मृत्यु न आये, तब तक चंद मिनिटों की ही है, परन्तु यह सुनते हुए भी हम कांप उठते हैं, तब विचार कीजिये कि नरक गति में असंख्य वर्षों तक सतत ऐसे चर्वण- छेदन - दहनादि सहते हुए जीव को कितनी भयंकर वेदनायें हुई होंगी ! ऐसी नरक की वेदना हमें कभी न भुगतनी पड़े, ऐसी इच्छा तो सब रखते हैं, परन्तु इस बात की सावधानी रहती है भला? ऐसे कार्य व विचारों का त्याग किया है भला ? ५ क्या आज नरक में जाया जाता है ? नरकगति के कारण :- यह मत भूलियेगा कि सिर्फ नरक में जाने की इच्छा न होने मात्र से काम नहीं चलता, परन्तु नरक में ले जानेवाले आश्रवों से दूर रहने की सावधानी भी रखनी चाहिये । वे आश्रव हैं... महा- आरंभ की बुद्धि, महा परिग्रह की बुद्धी, हिंसा- झूठ - चोरी - संरक्षण का रौद्रध्यान, तीव्र कृष्णलेश्या, अनंतानुबंधी के क्रोधादि कषाय, १५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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