________________
पुत्र
से भी छुपाकर रखूं, तो पाप कहाँ प्रगट होनेवाला है ?' फिर भी पाप की कमाई से कई गुणा अधिक कुदरत छीन लेती है। कुदरत इसी ताक में रहती है कि, 'अनीति-अन्याय करके ५०० रु. कमाकर लाया है न ? ले, अब तो तेरी बीबी या बच्चे को ही ऐसा बीमार कर दुं कि तेरे हजार रुपये साफ हो जायें या बेटा ही कहीं तेरे हजार रुपये खोकर आये !' अब आप ही कहिये, चाहे पाप गुप्त रहा, परन्तु नुकशान कितना हुआ ? कपट करके कमानेवाले चैन से नहीं जी सकते ।
मायादित्य का पलायन :
मायादित्य ने माया तो की, कंकर की बनावटी गठरी बनायी, परन्तु पाप कहाँ तक चलेगा ? भ्रम में रहकर असली रत्नों की गठरी स्थाणु को दे दी और कंकर की गठरी स्वयं छुपाकर रख ली। अब उसे वहाँ से भागने की उतावल हुई। लेकिन यकायक भागा कैसे जाय ? तो अब नयी योजना बनाता है ।
मायादित्य स्थाणु से कहता है - 'भाई ! क्या लेकर आये ? सिर्फ रोटी ? अकेली रोटी तो कैसे गले उतरेगी ? लाओ, मैं उसके साथ कुछ खट्टा- तीखा ले आऊं ।'
स्थाणु तो दिल का साफ था । उसने कहा, 'कोई बात नहीं, ले आओ। लेकिन जल्दी आना ।'
मायादित्य को सहजता से भागने का मौका मिल गया। वह तुरन्त उठकर बाहर निकला । बाजार में किसे जाना था ? वह तो सीधा गाँव से बाहर निकलकर आगे चल पड़ा । हृदय में पक्का विश्वास है कि स्वयं के पास जो गठरी है, वह दस रत्नोंवाली ही है । तो दूसरे गांव जाकर खोलकर भी क्यों देखे ? वह तो चलते चलते कहीं भी किसी भोजनालय या सदाव्रत में खाना खा लेता, थोड़ा बहुत आराम कर लेता और फिर से आगे चल पड़ता। उस पर तो बस एक ही धून सवार थी, 'जल्दी से जल्दी घर पहुंच जाऊं ।'
जीव की अनन्त निष्फल लगन :
कैसी लगन है ? घर जाकर गठरी खोलेगा, तो उसमें से क्या निकलेगा ? कंकर ! तब क्या होगा ? हार्ट फेइल ? रो-रोकर छाती व सर पीटेगा ? क्या फायदा हुआ ? फिर भी फिलहाल तो लगन ऐसी है कि खाया न खाया, सोया न सोया और फिर से चलने लगा खुद के गांव की ओर ! अनंत जन्मों में ऐसी तो अनंत लगन रखी, खाने-पीने की परवाह किये बिना अर्थ व काम के लिये दौड - धूप की, परन्तु सब निष्फल गई। फिर भी अभी भी यही पागलपन ?
मूर्ख जीव को अपने सच्चे घर - मोक्ष में पहुंचने की ऐसी कोई लगन नहीं लगती । मायादित्य को तो कंकर मिलनेवाले हैं, जबकि यहां तो जो दर्शन - ज्ञान - चारित्र रुपी रत्न लेकर दौड़े, खाने की या सोने की कोई परवाह न की, उन्हें अन्त में कंकर-वंकर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org