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________________ नहीं, परन्तु जो ज्ञानादि रत्न लेकर दौडे, उनसे अनन्त गुणा रत्न मिलनेवाले हैं। जीवन जीना है न? दोनों तरीकों से जीया जा सकता है। बुरे की लगन में अन्त में रोना पड़ता है; अच्छे की लगन में अनन्त मौज । लगन तो ज्ञानादि की चाहिये, धर्म की चाहिये, परन्तु वह लगन कैसी? खाया न खाया, सोये न सोये और दौडे धर्म-साधना में। ___ मायादित्य को चलते-चलते बारह दिन बीते । अब उसे उत्सुकता जगी कि देख तो लुं, मेरे हाथ में आये हुए दसों रत्न कैसे है ! एकान्त में बैठकर गठरी खोली । अन्दर से क्या निकला? कंकर ! अन्दर जो होगा, वही दिखेगा न ? कंकर ही हों, तो रत्न कहां से दिखेंगे? इन्द्रियों के विषयों में, संपत्ति-सन्मान में, कुटुंब-परिवार में ऐसा ही है। इनमें वास्तव में शांति नहीं, सुख नहीं । इनमें तो है - दुःख, चिन्ता, संताप की आग । अनंत तीर्थंकर ऐसा कहते हैं । अनंत मानवों के अनुभव हैं । हमारे स्वयं के अनन्त पूर्व भव भी यही बताते हैं। तो फिर यहाँ के विषय, संपत्ति, सन्मान, परिवार से भी दूसरा क्या मिलनेवाला था? कंकर देखते ही मायादित्य बेहोश हो गया । होश में आने पर जोरों से रोता है 'हाय । मैं ठग गया। हाय। मैं लुट गया। मैं कैसा बदनसीब!' इतना बीतने पर भी उसे यह भान नहीं आता कि - मियां की जती मियां के ही सर: जो मूढ मनवाला बनकर किसीके प्रति हृदय से भी बुरा सोचता है, उसीसे वह स्वयं मरता है। जैसे कि शिला के सामने छोड़ा गया बाण टकराकर वापिस उसीकी तरफ आता है। यहाँ मायादित्य के साथ भी ऐसा ही हुआ है। स्थाणु के पास कंकर ही रहें, ऐसा सोचा, तो बुरा उसीसे आकर टकराया। दूसरे के सर पर कंकर लादने गया, तो स्वयं के सर पर ही पड़े। स्वयं का शस्त्र स्वयं के ही सर पर लगा। समझना हो, तो यह दुनिया एक बोधशाला है। हृदय की धृष्टता खतरनाक : कुदरत बहुत कुछ सिखाती है, परन्तु जो सीखना चाहे उसे । मायादित्य के खुद के सर पर कंकर लगे, फिर भी उसे सीखना नहीं है, इसलिये उसे ऐसा नहीं होता कि, 'अब से कभी किसीको ठगुंगा नहीं और यदि स्थाणु मिल जाय, तो उसके आगे मेरी धोखेबाजी कबूल करके क्षमा मांगुं।' वह तो ऐसा सोचता है कि, 'इस बार धोखा खाया है, परन्तु अब कोई ऐसा नया दाँव डालुं व स्थाणु के पास से दसों रत्न हडप हुँ ।' हृदय कैसा ढीठ है ! कुदरत ने सीख लेने का अवसर दिया, परन्तु वह लेनी हो, तो? क्या आपके जीवन में कुदरत ने प्रहार नहीं किये? 'सीख भला कैसी?' हृदय की कैसी धृष्टता ? जीवन के अन्त तक ऐसी धृष्टता बनाये रखी, तो फिर भवान्तर में क्या होगा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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