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________________ कर भी) (३) अधिकार तत्काल न कह कर बाद में शांति से कहने लायक होते हैं। (४) दोष की खराबी तुच्छ हानि की द्रष्टि से बताने के बदले किसी महान हानि को आगे करके भी बतायी जाए। उलाहना कैसे दिया जाय? इसका भी एक साइन्स है। उलाहना देने में (१) सामनेवाले के दिल के नाजुक तार टूट न जायँ, (२) वह उलाहने को सहर्ष झेल ले, (३) उस पर विचार करे, (6) दोष का परिष्कार करे, यह सब खयाल रखना होता है। कहने की कुशलता-चतुराई न हो तो कहनेवाले पर उसे जो सद्भाव था वह उठ जाए और दुर्भावना पैदा हो जाय तो मामला खत्म । अब वह फिर से उलाहना सुनने - को तैयार ही नहीं होगा। अत: उलाहना - (या डाँट-फटकार) जैसे तैसे और जब चाहो तब नहीं दिया जाता। अगले की सद्भावना उठ जाने के बाद तो दूसरे भी नुकसान होंगे; क्योंकि अब तो 'पेट का जला गाँव जलाए' जैसी बात होगी। दुर्भावना के कारण बाहर बाप की निंदा करेगा: अत. लड़के की सद्भावना बनी रहे, यह भी माँ बाप को देखना रहा। उलाहने के बाद कैसे बरतना ? : उलाहना देने के बाद भी व्यवहार करने की खूबी है (१) उलाहना देने के बाद विशेष प्रेम दिखाना चाहिए । (२) संतान को डर भी लगना चाहिए कि 'हमारा अनुचित व्यवहार माता पिता को पसंद नहीं है। और उन्हें जो पसन्द न हो ऐसा हम यदि बार बार करें तो वे कुछ चला लेनेवाले नहीं ।'. ऐसा भय भी पैदा करना चाहिए; और (३) आकर्षण ही बना रहना चाहिए कि 'हमारे माता पिता हमारे पर बहत प्रेम रख कर हमारी बहुत अच्छी चिंता-फिकर करते हैं और हमारे लिए बहुत बलिदान देते है। हमारी भूलों को गाँठ से नहीं बाँध लेते या बदला नहीं लेते।' उलाहने का बाद के व्यवहार पर भी अगले को सद्भावना - दुर्भावना का आधार है। लाड-प्यार या गंभीरता कहाँ तक? : तात्पर्य - उलाहना देने में बहुत ध्यान रखना होता है लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि उलाहना देना ही नहीं । न देने से बहुत से बालकों के जीवन बरबाद होने के उदाहरण आज देखने को मिलेंगे। लाड़ के कारण नहीं डाँटे; परन्तु फिर उसे सुधरने का अवकाश कहाँ से मिले? यदि पिता की ओर से सर्व-सामान्य रुप से कहा जाय तो उसमें से सन्तान में अपने लिए हित-शिक्षा प्राप्त करने की न तो बुद्धि है, न गर्ज है; साथही जागृति का भी अभाव है; फिर दो के प्रति ऐसा द्वेष भी नहीं है। ऐसी स्थिति में वह कैसे सुधरे? शांति से व्यक्तिगत रुप से अकेले में बिठा कर कहा हो तो फिर भी उसके कान खुल जाएँ, वह विचार करने लगे, पुनः भूल न करने का निश्चय करे, अतः सुधारने के लिए कहना तो चाहिए ही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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