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________________ और उस पर जहर बरसाने का काम करता है ! बुद्धिबल तो वही का वही, परन्तु उस साधन के महामूल्य का ज्ञान नहीं हैं, गँवारपन है, और इसलिए उसका भयानक दुरुपयोग होता है ! इससे क्या मिलता है ? इसमें भी कोई लाभ है ? कोई नहीं, सिवा खुजली खुजलाने का ! 'वैर विरोध की खुजली उठती है और बुद्धि से उसी पर दुर्विचार करने लगना, और अन्तस्तल में धधकना और शरीर पर कुप्रभाव ग्रहण करना' - यही मिलता है। क्या अच्छी प्राप्ति हुई ? कुछ नहीं । तो भी उसी में बुद्धि लगाये बिना नहीं रहा जाता। बाप से निवेदन : मानभट ने बुद्धि का दुरुपयोग किया - मान कषाय का पारा बढ़ा दिया और खूनी बना ! अब डर के मारे घर पहुँचा । आकर पिता के चरणों में गिर पड़ा, और सारा वृत्तान्त निवेदित करता है, फिर पूछता है - 'पिताजी ! अब मैं क्या करूँ ?' पिता के लिए समस्या : बाप से कहे बिना चला जाय ऐसी स्थिति नहीं थी, क्योंकि भीलों तथा राजा के आदमियों का घर आने का डर तो अभी मौजूद ही है, अत: घर में सुख से बैठना संभव नहीं है, तब बाप को अँधेरे में रख कर क्या करे? बाप से वृत्तान्त कह कर अब बचने का उपाय पूछता है। बाप के मन को बहुत दुःख हुआ परन्तु (१) इस समय उलाहना देने डाँटने - डपटने का अवसर नहीं है। साथ ही (२) 'नालायक! ऐसी करतूतें करता है ? निकल जा मेरे घर में से।' ऐसा कह कर बेटे को निकाल देने का भी अवसर नहीं है, क्योंकि अब तो खुद उसे भी डर लगता है कि बेटे को निकाल देने के बाद भी वे लोग आकर खुद को ही सताए कि 'बताओ, तुम्हारा लड़का कहाँ है ?' ऐसे धमकाएँ और यह कोई और जवाब दे तो वे लोग गुस्सा होकर इस पर वार करें तब क्या हो? अतः (३) बाप को डर है। भय संज्ञा में मनुष्य उचित-अनुचित का विचार करने कहाँ बैठे? (लड़के क्यों बिगड़ते हैं ? साथ ही यह बात भी है कि बाप को बेटे से मोह है, अत: बेटा कैसा भी अनुचित कर आया है तो भी बाप उसे पी जाता है। यदि यह मोह न रहता हो तो दुनिया में कितने ही माँ - बाप जो अपने पुत्रों के आत्मिक जीवन बिगाड़ते हैं सो न बिगाड़ते होते । अयोग्य को चलने दे कर बेटे को कोई डाँट फटकार या सजा नहीं देते फलतः उसे ऐसा लगता है कि 'ऐसे चल सकता है।' फिर सुधार क्यों करे? सद्भाव बनाये रखना आवश्यक है :प्र. तो क्या बार बार टोका करने से सुधरते हैं ? क्या इससे ढीठ नहीं बन जाएँगे? उ. कुशलता न हो तो ऐसा हो भी जाए । अन्यथा, (१) उलाहने कड़वे भी हों और मीठे भी। (२) सीधे शब्दों में कहने योग्य हों और तिरछे ढंग से भी कहे जाएँ (घूमा फिरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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