SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लेकर हाय-हाय, अशान्ति, आर्तध्यान आदि को एक ओर छोड कर निश्चिंतता-पूर्वक धर्मप्रधान जीवन जीने का साधन नहीं है ? अवश्य है। फिर भी उसका उपयोग कितना उलटा हो रहा है? उलटे अधिक आरंभ-समारंभवाले कारखाने और भीषण विषय-विलासवाले बंगले-मोटर, मौज-शौक के साधन जुटाने में होता है न? इसी तरह प्रतिष्ठा, प्रभाव, सत्ता आदि कितने ही साधन प्राप्त होते हए भी उनका उपयोग स्व-पर के धर्म-पोषण में करने के बदले उलटा उपयोग कैसा चल रहा है, स्व तथा पर दोनों के कषायों की वृद्धि में ही? दुनिया में ऐसे मूढ़ मिलते हैं ? : ज्ञानीजन मनुष्य-जन्म को मोक्ष-मार्ग की आराधना का बेजोड़ साधन कहते हैं, उच्च सद्गति पाने का एवं समस्त भावी काल को उज्जवल बनाने का अद्वितीय साधन कहते हैं, तब बेचारे जीव को इस बात का विचार नहीं हैं कि - 'और कुछ भी दूसरा - तीसरा कले के साधनभूत भव तो बहुत मिलेंगे, परन्तु ऐसा मानवभव व्यर्थ खोने के बाद पुनः कब मिलेगा? और कब इसका ऐसा सदुपयोग करूँगा?' उत्तमोत्तम साधन का यह सुन्दर उपयोग चूकनेवाले हम क्या मूर्ख और मूढ़ नहीं? श्रेष्ठ बावना चंदन का उपयोग बर्तन मांजने की राख बनाने में करनेवाला कैसा लगेगा? बुद्धिमान् या बेवकूफ? विवेकी या मूढ़ ? एक दूसरे की होड पर चढ़ कर हजार रुपयों की करंसी नोट में तमाखू रख, उसकी बीडी बनाकर फूंक दे, वह कैसा माना जाए? बाजार के बीच हज़ारों रुपये मासिक आय करानेवाली दुकान पर जूए का अड्डा जमाए और बाप का धन बरबाद करे, उस बेटे को कैसा कहेंगे? इन सब में मूढता समझ में आती है, किंतु अपने ही मानव-भव, बुद्धिधन - प्रतिष्ठा आदि उच्च साधनों का खुद ही सरासर दुरुपयोग करने में अपनी मूढता नहीं दिखाई देती! धन्य है बुद्धि को! चौंकना चाहिए कि, 'अरे! मैं यह क्या कर रहा हूँ? साधन होते हुए भी उसका तारक उपयोग करने के बदले मारक उपयोग ? बाद में कर्म मुझे इस दुरुपयोग का भयानक दंड नहीं देगा ? वापस ऐसे साधन पाने के लिए मुझे नालायक करार नहीं देगा? किस वस्तु के बदले क्या दिया जाता है ? कैसी दुःखद स्थिति है? जिस बुद्धि तथा अन्य साधनों पर मैत्री - करुणा - प्रमोद आदि को विकसित किया जा सकता है, उन्हीं पर मूर्ख जीव वैर विरोध, स्वार्थ लोलुपता और ईर्ष्या विकसित करता है। जिसके द्वारा साधर्मिक को उपबृंहण, धर्म स्थिरीकरण, और वात्सल्य दिया जा सकता है उसी बुद्धि से उसकी अवगणना, उसकी श्रद्धादि का खंडन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy