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आदि के महान् लाभ की भावना अपना कर साथ (२) महापुरुषों के द्रष्टांत याद कर उन में से प्रेरणा-प्रोत्साहन पाकर यदि मोह से लडे तो फिर मोह को ही पीछे हटना पड़े।
दीक्षा किस तरह ली जानी चाहिए ?
प्र.- तब तो इसका यही अर्थ हुआ न कि बैठे - बैठे ऐसे क्लेश का मुकाबला करना, लेकिन दीक्षा न लेना ?
उ.- यह बात नहीं । दीक्षा के बिना तो छुटकारा ही नहीं है लेकिन दीक्षा क्लेश से उकता कर न ली जाए बल्कि मन को समझाना कि 'ऐसे क्लेशमय संसार से कष्टमय चारित्र धर्म श्रेष्ठ है। यहाँ के लोगों का सुनूँ उससे गुरु का - मुनियों का सुनना क्या बुरा? जिससे कि कितने ही लाभ तो हों । अत: चलो, अब कडवी हित-शिक्षा सुनने के लिए भी दीक्षा ग्रहण करूँ।'
चारित्र -'जीवन में कटु वचन सुनने के फायदे :
(१) एक तो 'यह समता से सुनना मेरे हित में हैं।' इस विचार से सुन ले उससे कर्म-क्षय होता है।
१२) दूसरा यह कि इस तरह समतापूर्वक सुनते सुनते और अपनी ही त्रुटि देखते देखते क्षमा और सहिष्णुता का सुन्दर अभ्यास होता है और सहिष्णुता सुगठित होती है जो आगे चलकर परभव में उत्तम फल देती है।
(३) अनेक बार सुन ले, और सामने रोब-रोष न बताए, उससे गुरु एवं मुनियों पर सुन्दर छाप पडे, प्रतिष्ठा में वृद्धि हो, और गुरु से सुन्दर ज्ञानादि सम्पत्ति प्राप्त हो, साथ ही साधुगण अनुकूल बन जाएँ।
(४) सहिष्णुता के अभ्यास से और भी कई लाभ होते हैं। इसका प्रभाव अन्यत्र भी पडता है। उससे त्याग में आगे बढने और तप में आगे बढ़ने की शक्ति मिलती है।
नाजुक मनवाला तो सब जगह नाजुक ही रहेगा।
जब जरासी त्याग करने की बात आएगी तो मन कहेगा, 'अपने से नहीं होगा।' जरा सा क्लेश - कष्ट आने पर मन आकुल-व्याकुल हो जाएगा "अपने से यह कैसे सहन होगा?" सहिष्णु मनवाला इस तरह नहीं उकताएगा, बल्कि आराधना को आगे बढाएगा।
अतः दीक्षा तो लेनी ही चाहिए, लेकिन मोह के आगे डरपोक बन कर नहीं; वरन् लड लेने के लिए । क्षमा, सहिष्णुता, निर्लोभता, तत्त्वद्रष्टि, निरभिमानता आदि मोह से लडने के शस्त्र हैं।
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