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________________ minine AMER the 3gy HAMAR H IVERY-28030INAGAR चारित्र में मोह का नाश सरल गृहवास में मोह के विरुद्ध युद्ध क्यों कठिन है ? :प्र.- तो क्या घर में रहकर मोह से लडना संभव नहीं ? उ.- संभव है; परन्तु मामूली क्योंकि (१) इन शस्त्रों को आजमाने के लिए जो शास्त्र बल जरुरी है, उनका अध्ययन करने के लिए घर में अवकाश ही नहीं है, फिर घर में रहकर ये आगम-शास्त्र पढने का अधिकार ही नहीं है, वह साधुपन में ही है। तदुपरान्त (२) ऐसा संसार ही ले बैठा है कि उसमें कितनी ही आवश्यकताएँ रहती हैं । स्वार्थ सुरक्षित रखना होता है, अनिवार्य प्रसंग निभाने होते है; वहाँ जीव को रोब, रोष आदि बताये बिना नहीं चलता, चलाने का ऐसा धैर्य ही नहीं रहता। जबकि साधु-जीवन में ऐसा परिवार सम्हालने का काम नहीं है, पैसे नहीं रखने हैं, घरेलु सामान आदि की जरुरत नहीं, और कोई ऐसे सांसारिक स्वार्थ नहीं जिनके कारण रोब-रोष करने पडे।। (३) घर में स्त्री-पुरुष, दुकान-मकान, धन-दौलत, आदि निमित्त ही ऐसे हैं जो राग कराते हैं। ये साधु-जीवन में नहीं, अतः राग के खेल का स्थान नहीं। (४) सोचेंगे तो दिखाई देगा कि कितने ही पाप स्थानक, कषाय, मलिन लेश्याएँ, दुर्ध्यान और संकल्प-विकल्प गृहवास के कारण ही होते हैं, करने पड़ते हैं । वहाँ उन्हें रोकने के लिए मोह के विरुद्ध कितना लडा जा सकता है ? साधु-जीवन में ही मोह के खिलाफ लड लेना संभव है। और वे रुक जाएँ इस तरह की अनुकूलता वहाँ है । यह तो हुई मोह के आगे डरपोक न बन लड लेने की बात । (२) मोह की शरणागति अब दूसरी बात । मोह की शरण में जाए तो बचें या नहीं बचें? मानभट यदि पहले से ही भीलों की शरण में जाता तो बचता? कम संभावना है। मोह में भी यही बात है। शरणागति में रक्षा नहीं होती। उदाहरण के तौर पर - एक व्यक्ति से तपस्या नहीं होती, या रसत्याग नहीं होता । अब यदि वह ऐसा माने कि 'मुझ से इस जीवन में कुछ नहीं हो सकता' और ऐसा करके मोह की शरण में ही पड़ा रहे, अर्थात् खान-पान-रस आदि का निरंकुश भोग करे तो जीवन के अन्त तक उसे मोह से बचने का अवसर नहीं मिल सकता । ऐसी अन्य बातों में भी शरणागति-जैसे कि 'मुझसे किसीका बरदाश्त नहीं हो सकता, मुझ से जरा भी प्रतिकूलता सहन नहीं होती, मुझे तो यह अनुकू लता अवश्य चाहिए। आँख-कान वगैरह मिले हैं तो सिनेमा, रेडिओ आदि कैसे छूटें ? ऐसी सब मोह की शरणागतियाँ स्वीकार कर ही बैठ जाय तो उसमें से बचाव कैसे मिल सकता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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