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________________ अधीन होने से गृहस्थ धर्म में विषय संग में मूढ मनवाले बनते हैं, तो यह बिचारा क्यों न मोहमूढ न बनेगा ? फिर भी इसने पिता को मारने एक बडा अकार्य तो किया, परन्तु अब बहन के साथ अनाचार सेवन का दूसरा भयंकर अकार्य न करे, इसके लिये इसे प्रतिबोधित करूँ। ऐसा सोचकर मैं आकाश से नीचे उतर आया व तुझे बोध दिया। महात्मा इस जगत पर कैसा उपकार करते हैं ! महा पापी जीवों पर भी कैसी दया करते हैं ! मोहदत्त घोर पापात्मा बना था, परन्तु चारण मुनि आकाश में से जाते हुए उस पर दया करने के लिये नीचे उतर आये व प्रतिबोधित किया । मोहदत्त भी कैसा भाग्यशाली कि उसे ऐसे दयालु महात्मा मिल गये ! तो ऐसे योग को निष्फल क्यों किया जाय ? तीव्र भोगराग को भी छोडकर वह दूसरे घोर अकार्य से बच गया व पाप के भारी पश्चाताप के साथ संसार त्यागकर कष्टमय चारित्र लेने के लिये तैयार हुआ है 1 जीवन में महापाप देखने के बाद उससे संत्रस्त जीव सर्व पाप छोडने के लिए कटिबद्ध होता है । मुनि ने अपने एकाकी विचरण की बात बताकर दीक्षा देकर शिष्य बनाने का इन्कार किया । अब मोहदत्त पूछता है, 'भगवंत ! तो फिर मैं दीक्षा किस प्रकार प्राप्त करूँ ?" महर्षि ने कहा 'यहाँ से जाते हुए राजा पुरंदरदत्त की कोशांबी नगरी के दक्षिण भाग के उद्यान में धर्मनन्दन आचार्य महाराज मिलेंगे। वे स्वयं ज्ञान से ही तेरा वृत्तान्त जानकर तुझे दीक्षा देंगे। इतना कहकर चारण महर्षि आकाश में उड़ गये व मोहदत्त वहाँ से निकलकर यहाँ धर्मनंदन आचार्य महाराज के पास आकर बैठा ।' (मोहदत्त की दीक्षा : 'हे पुरंदरदत्त महाराजा ! मोहदत्त यह सुनकर वहाँ से निकला व मुझे खोजते हुए यहाँ आया है । देखो, वहाँ बैठा है । ' 1 मोहदत्त ने तो स्वयं की बात भी नहीं कही, परन्तु धर्मनंदन आचार्य महाराज ने ज्ञान से देखकर जो बताया, उस पर मुग्ध हो गया । खड़ा होकर हाथ जोडकर कहता है'भगवंत ! आपने मेरे बारे में जो कुछ फरमाया, वह अक्षरशः सत्य है । मैं मेरे पिता का घातक बना व माँ के सामने बहन के साथ अनाचार सेवन के लिए तत्पर हो गया था । परन्तु चारण - महर्षि ने मुझे बचा लिया। आपने जो कुछ बताया, उसमें तनिक भी असत्य नहीं। तो अब कृपा करके मुझे दीक्षा दीजिये।' इतना कहकर महर्षि के चरणों में गिरा । महर्षि धर्मनंदन आचार्य महाराज ने ज्ञान से देखा कि इस व्याघ्रदत्त यानी मोहदत्त का मोह व कषाय अब शान्त हो गया है, अतः उसे दीक्षा दी। मोह व कषाय शान्त हुए बिना दीक्षा नहीं दी जाती । दीक्षा देने के बाद महर्षि फरमाते है, 'हे वासव महामंत्री ! ये क्रोध- मान-माया २१६ Jain Education International For Private & Personal Use Only I www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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