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________________ (४) एक्सीडेण्ट हुआ या केंसर जैसा रोग हुआ, तो भारी कष्टदायक ओपरेशन, उपचार आदि करवाने के लिए भी तत्पर हो ही जाते हैं न ? वहाँ धीरे-धीरे अभ्यास के लिये रुकते हैं? (५) किसी कारण से आबरु गयी, तो विदेश जाकर वहाँ कई कष्ट सहन करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं या उसी गाँव में रहकर कष्ट सहन करने का थोडा-थोडा अभ्यास किया जाता है? कहने का तात्पर्य यह है कि कोई बड़ा भय लगे, कोई भारी चिन्ता उपस्थित हो जाय, अथवा कोई प्रलोभन मिल जाय, तो उस भय-चिन्ता से छूटने के लिये या लालच को पूर्ण करने में भारी से भारी कष्ट सहन करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं । यहाँ यदि मोहदत्त के घोर पाप ऐसे ही रह जायें और शायद जीवन पूर्ण हो जाय, तो उत्कृष्ट आराधना हाथ से गयी, ऐसा उसे लग गया है, इसीलिये भारी कष्ट हों तो कष्ट ही सही, परन्तु ऐसे घोर पापों का क्षय करनेवाली साधना मिलती हो, तो ले लेने की तमन्ना जगी है, इसीलिये वह एकदम दस प्रकार के क्षमादि यतिधर्म का स्वीकार करने के लिये तैयार हो जाता है व महात्मा को कहता है, "भगवंत ! मुझमें योग्यता दिखती हो, तो मुझे दीक्षा दीजिये।' महात्मा ने क्यों दीक्षा नहीं दी ? महात्मा कहते हैं, "तू अब योग्य है, परन्तु मैं तुझे दीक्षा नहीं दे सकता। क्योंकि मैं चारण श्रमण हूँ ; अर्थात् आकाशगामी विद्या से एक स्थान से दूसरे स्थान आकाश में उडकर जानेवाला हूँ। अत: मुझे गच्छ का संग्रह नहीं, शिष्यादि परिवार मैंने रखा नहीं है। जिन विद्याधरों को वैराग्य हो जाता है व जो श्रमणधर्म स्वीकारते है, वे पूर्वसिद्ध विद्या से गगनचारी होते हैं व उत्कृष्ट चारित्रधर्म को पालन करते हैं। ___मैं आकाशमार्ग से जा रहा था, तब मैंने देखा कि इस पुरुष का तू घात कर रहा है। अवधिज्ञान से मुझे ज्ञात हुआ कि यह पुरुष तेरा पिता ही है। तब मुझे बहुत दुःख हुआ कि यह कैसा पुत्र है! 'जणकमिणं मारेउं, पुरओ च्चिय एस माइ-भइणीणं । मोहमओ मत्तमणो, एम्हि भइणि पि गच्छिहिइ ? ॥' स्वयं की माता व बहन के समक्ष ही अपने पिता को मारकर यह मोहमूढ व उन्मत्त मनवाला बनकर बहन के साथ भी काम-क्रीडा करेगा? मैं सोचने लगा कि 'अरे! यह मोहनीय कर्म कैसा?' यह मोहनीय कर्म जीव पर कैसा जुल्म करता है ! नित्थिण्णि भवसमुद्दा चरमसरीरा य हों ति तित्थयरा । (कम्मेण तेण अवसा, गिहधम्मे होंति मूढमणा ॥ तीर्थंकर तो भवसमुद्र से पार उतरने के बहुत निकट होते हैं, व चरमशरीरी अर्थात् उसी भव में मोक्ष जानेवाले होते हैं। फिर भी (निकाचित भोगावलि ) मोहनीय कर्म के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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