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________________ करने लगेगी । कौशल्या को रोष : राजा दशरथ ने भगवान का स्त्रात्र महोत्सव करवाया और उसका स्नात्रजल बाद में अलग अलग नौकरों से अलग अलग रानियों को भिजवाया। इनमें कैकेयी आदि अन्य रानियों को जल्दी पहुँच गया, परन्तु रानी कौशल्या को जल्दी नहीं पहुँचा। हालाँकि उसका कारण यह था कि उसके पास ले जाने वाला नौकर बूढ़ा था, वह धीरे धीरे चलता था, तो भी कौशल्या को ऐसा लगा कि 'राजा के मन दूसरी रानियों का मूल्य है सो उन सब को स्नात्रजल भेजा लेकिन मेरा कोई मूल्य नहीं अतः मुझे नहीं भेजा । इसलिए उसे गुस्सा आया और वह कोप भवन में जा बैठी। बताइये, इतनी सी बात में राजा पर क्रोध ? जरा भी धीरज न रखी, या अपनी कल्पना के सत्यासत्य की जाँच भी नहीं करवायी । यह तो ऐसा हुआ कि बाद में राजा ने आकर गुस्से का कारण मालूम होने पर स्पष्टीकरण किया और उतने में वृद्ध सेवक भी स्नात्रजल लेकर आ पहुँचा, और उसने देर होने का कारण अपनी शारीरिक दुर्बलता को बताया, तब जाकर कौशल्या का मन स्वस्थ हुआ, लेकिन एक बार तो गुस्सा चढ़ा ही था । संसार असार कैसे ? ऐसे ऐसे चंचल मनवाली स्त्रियों को अभी अभी तो पति का गुण मानने की इच्छा हो और जरा सी देर में पुनः उसकी त्रुटियों पर नजर आए इसमें कोई आश्चर्य नहीं । अरे! यदि त्रुटि तब तो उसे देखने की बात भी हो, परन्तु यह तो त्रुटि खोजने की वृत्ति बन जाती है । वह बारीक निगाह से देखा करेगी कि पति कहाँ भूल करता है। लड़के की गलती कारण माँ का मन खिन्न हुआ हो, उसका गुस्सा पति पर उतारती है । वह खोजती है कि 'पति किस बात में भूल करता है ? उसे पकड़ कर सुना दूँ।' ऐसे अनेक दोष-ग्रहण चलते हैं फिर स्वार्थ हो तब गुण मानने लग जाती है । स्त्रियों की ऐसी चंचल वृत्ति के बीच पुरुष को उसके साथ जिन्दगी निभानी पडती हो ऐसे संसार में सार कहेंगे या असारता ? ज्ञानियों के निष्कर्ष बुद्धिपूर्ण और यथार्थ होते हैं। उन्होंने स्त्रियों के विषय में बहुत लिखा है । यह लिखने की वजह यह है कि जिससे स्त्रियों पर अन्धा प्रेम करने से रुक सकें, और ज्यादा तो यह कि इस राग के पाप से संसार में जो फँसे रहना पड़ता है उसमें से शक्ति प्रस्फुटित कर के निकल सकें, और मानव जीवन का असली साररुप चारित्र प्राप्त हो सके । मानभट बाहर जाता है -- मानभट ने सोचा स्त्रियों की चेष्टाएँ समझी नहीं जा सकती, अतः अब इस पत्नी को समझाना निरर्थक है। घर से बाहर ही चला जाऊं। मुझे जाता देख शायद यह मान जाय या नहीं । देखूँ यह क्या करती है।' ऐसा सोच कर वह बाहर चला गया । ४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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