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________________ (१) सदा भक्ति पूर्वक साधु की सेवा करें। (२) जीवों पर भावपूर्वक मैत्री स्नेहभाव रखे। और (३) पौद्गलिक वस्तुओं पर ममता की गिरफ्त न रखे । ये साधन साथ में हों तो अहिंसादि एवं क्षमादि धर्म की साधनाएँ अच्छी तरह की जाएँ । यदि इनमें विघ्न आए तो साधना में विघ्न आएंगे। पौद्गलिक वस्तुओं पर यदि अंध ममत्व होगा तो उसके मोहवश वे साधनाएँ एक ओर रख दी जाएँगी अथवा जैसे तैसे की जाएँगी। वैसे ही यदि जीवों के प्रति मैत्री न हो, स्नेह न हो तो, वैरविरोध पैदा होगा, फलत: अहिंसा-सत्य-क्षमा आदि की साधना कठिन होगी । धर्म का औषधालय - साधु : यदि साधु-समागम नहीं हो तो इन अहिंसादि धर्मो की साधना की प्रेरणा- प्रोत्साहनसमझ वगैरह कहाँ से मिले ? साधु महाराज शास्त्र सीखे हुए होते हैं और स्वयं अपने जीवन में उच्च कोटि की साधनाएँ करते होते हैं अतः उनके विशाल अनुभव एवं ज्ञान में से बानगी मिल सकती है, और उसका असर भी होता है । अत: जैसे दवा के लिए डॉक्टर के पास जाना पडता है वैसे धर्म के लिए साधु के पास जाना पडता है। पिता ने मानभट को गाँव लाकर वैद्य से दवा करवा कर उसे स्वस्थ किया । मानभट के गाँव में गीत-गान धर्मनन्दन आचार्य महाराज राजा पुरंदरदत्त से वहाँ सभा में बैठे हुए मानभट के घमंडीपन की कहानी कह रहे हैं। अब आगे वर्णन करते हुए वे फर्माते हैं कि मानभट अच्छा होने के बाद उस गाँव में अपने माता-पिता तथा पत्नी के साथ रहता है। इस बीच गीत - गान और मौज के दिन आते हैं अतः हर गाँव की तरह यहाँ भी मानभट के साथ जवान लोग अपनी पलियों सहित गाँव के बाहर एकत्रित होते हैं । मधुर पेय पीकर तरह तरह के मजे उडाते हुए एक ऐसी क्रीडा शुरु करते हैं कि 'पेड की डाली पर एक झूला बाँध कर बारी बारी से एक एक युवक बैठ, और अपनी पत्नी को ही लक्ष्य कर कविता गाना गाए, दूसरे को लक्ष्य कर नहीं। उसमें भी पत्नी को संबोधन करके गाना गाए और झूला झूले । 1 ऐसा तय करने का कारण यह है कि इससे इस बात की परख हो कि अच्छे भाग्य के मद से उन्मत्त युवक को अपनी पत्नी पर कितना सद्भाव है ? उसमें पत्नी के सौभाग्य की परीक्षा दिखाई दे । उत्तम सौभाग्यवाली हो तो पति के मन में उसे अच्छा स्थान मिला हो अतः पति उसे सुन्दर सुन्दर विशेषणों से संबोधित करके गाए । जबकि यदि ऐसा न हो तो पति हृदय में दुर्भाव होने के कारण ऐसे विशेषण न बोले और सामान्य अथवा तुच्छ विशेषण बोले । हृदय में हो वैसा होठ पर आए न ? मन में सो मुँह पर। यहाँ पूछिये न कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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