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________________ न? या आप को लेने गाडी वापस मुडे ? यह मानव जीवन का समय भी अनन्त काल के बीच क्षण के समान है। उसमें 'धर्म आज करता हूँ, कल करूँगा' ऐसे सोचते रहे और जीवन समाप्त हो गया या किसी दुर्घटना आदि के शिकार हो गये तो खेल खतम । मौका हाथ से निकल गया। अब, बूँद की बिगड़ी, हौज से नहीं सुधरती । ऐसे अल्प मानव-काल में भी जो बिगाड़ा सो अन्य जन्म के दीर्घ काल में भी नहीं सुधरता । धर्म के बिना किस आशा में बैठे बैठे जीवन व्यर्थ खो रहे हो? तन-मन-धन तथा वचन के दुष्कृत खूब करते जाना है, और थोड़े से सुकृतों का भी अवकाश नहीं है? मौत नहीं आएगी? भवान्तर में ले जाने के लिए सुकृतों की जरुरत नहीं है ? (१) तन से सेवा, कृतज्ञता, दया, त्याग-तप-व्रत-नियम, देवगुरु भक्ति; (२) मन से सद्भावनाएँ, सुविचार, विराग-उपशम; (३) धन से दान-परोपकार, सात-क्षेत्रों की भक्ति और (४) वचन से दूसरों का गुणानुवाद, परमात्म गुणगान, सत्य, सहानुभूति, शास्त्र-स्वाध्याय, स्तोत्र, आदि सुकृतों के लिए जीवन में फुरसत नहीं, परवाह नहीं, और दुष्कृत्य सतत, लगातार करते ही जाना है । क्षण भर देर की और यहाँ से रवाना हो गये तो फिर खेल कैसे खतम हो जाएगा? आगे परलोक का काल कैसा है ? कितना अंधकार पूर्ण ? कितना दुर्दशापूर्ण ? मानभट पूछता है, परन्तु : मानभट को लगता है कि 'यदि जरा सा देर से आता तो यहाँ मामला खत्म ही था। चलो, अच्छा हुआ कि वक्त पर आ गया, और यह जी गयी।' वह पछता है पत्नी से 'सुन्दरी ! इतना सारा साहस करने की क्या वजह? किसने तेरा क्या कसूर किया है?' पत्नी, रोष में भर कर बोली, 'मुझ से क्या पूछता है ? वहाँ जा, जहाँ तेरी श्यामांगी रहती हो।' मानभट कुछ समझा नहीं 'कौन श्यामांगी?' अत: बोला - 'अरे! मैं तो जानता ही नहीं, कि कौन है यह श्यामांगी? - श्याम अंग वाली ?' पत्नी कहती है 'ए ! नहीं जानता ? तो क्या आज गीत में व्यर्थ ही उसका नाम लिया था?' __ इतना कह कर वह चुप बैठी। वह बहुत स्पष्टीकरण करता है - "नहीं, नहीं. मेरे मन में दूसरी कोई स्त्री नहीं है । गीत में मैने किसी अन्य को संबोधित नहीं किया । तुझे ऐसा वहम कहाँ से हआ?' लेकिन इसके मन में तो 'श्यामा' शब्द घुस बैठा था, और गाँव की स्त्रियों से भी उसे यही अर्थ 'श्यामवर्णवाली' - ऐसा मिला था, अत: निश्चित मान रही है कि, 'अब यह अपनी बात छिपाता है, मन में किसी दूसरी पर राग है; फिर भी कबूल नहीं करता और बातें बनाता है। इसलिए कोई उत्तर नहीं देती, चुपचाप उदास बैठी है। अब एक शब्द भी नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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