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बोलती ।
स्नेही से बढ़कर लोगों का कहा विश्वसनीय !
प्र. तो क्या मानभट यह स्पष्टीकरण न दे कि मैंने 'श्यामा' कहा था सो सिर्फ स्त्री के अर्थ में तुझे ही संबोधित कर कहा था ?
उ. स्पष्टीकरण दे तो भी क्या ? इसके मन में गाँव की स्त्रियों का लगाया हुआ अर्थ पहले ही जमा बैठा है सो कैसे निकले ? ऐसा तो कितनी ही बार बनता है कि लोगों के वचनों पर विश्वास बैठता है उतना स्नेही के स्पष्टीकरण पर नहीं । यह मोह की कुटिलता है कि वह भले आदमी का भी सिर फिरा देता है तो सामान्य आदमी का तो बूता ही क्या ? रामचंद्रजी तक भूल कर बैठे थे न ? उन्होंने सीताजी को पवित्र होते हुए भी लोक वचन के कारण ही वन भेज दिया था न ? तो जब इतने बड़े भी भूल करते हैं तब यह मानभट की पत्नी भूल न करे ? वह पति का स्पष्टीकरण मानने को तैयार नहीं है और रोष में चुपचाप बैठी है।
अतः मानभट को ऐसा मालूम हुआ कि 'आह ! यह कोपायमान हो गयी है। अब यह कोप कैसे उतारा जाए ? क्या करूँ ? यहाँ नीतिशास्त्र कहता है कि 'बहुत क्रोधित हुई युवती - पत्नी को पैरों पड़कर भी मना लेने में हर्ज़ नहीं ।' अतः मानभट पत्नी से कहता है -
मानभट मान छोड़ता है :
'ले, ले, अब मेहरबानी कर । मेरी स्वामिनि ! दया कर! क्यों व्यर्थ वहम कर मुझ पर क्रोध करती हो ? देख, यह गर्व से अकड़ा हुआ मेरा सिर तेरे चरणों में झुकता है।' ऐसा कहते ही वह पत्नी के पैरों पर सिर रख देता है। ग्रन्थकार निम्नलिखित शब्दों में मानभट की प्रार्थना लिखते हैं :
'दे पसिय पसिय सामिणि ! कुणसु दयं कीस में तुमं कुविया ?
एयं माणत्थद्धं सीसं पायेसु ते पडड़ ॥'
मानभट पैरों पड़ता है फिर भी पत्नी दुगुने रोष से मौन धारण करती है, तब मान का पुतला यह मानभट घमंड में चढ़कर सुना न दे ? क्या सुनाए ? आपको आता है न ? 'ऐ ! मैं अपना कोई कसूर न होते हुए भी इतना इतना गिड़गिड़ाता हूँ, पैरों पर सिर रखता हूँ और तुझे कुछ नहीं पड़ी है ? चल, उठ, खड़ी हो जा, कोई अच्छा पति ढूँढ ले.... ।' ऐसा ही कुछ न ? लेकिन नहीं, इसके जाने के बाद मेरा क्या होगा ? ऐसी स्वार्थ की लार टपकती है। न ? इसलिए कैसे सुनाया जाय ? मानभट भी ऐसे ही किसी विचार से अब भी पुनः पत्नी के आगे गिड़गिड़ाता है
'मानिनी ! मैंने बड़े बड़े राजाओं को भी यह सिर नहीं झुकाया। युद्ध में तलवार
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