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________________ भाले के घाव से अंग जर्जरित होने पर सिर नहीं झुक पड़ा। आज तुझे तिगुना झुक रहा है । सुन्दरी ! समझ ले कि तेरे सिवा किसी और के पैरों पड़ कर मैं नहीं झुका, वह मैं तुझे झुकता हूँ । अतः गुस्सा भूँक दे ।' क्या सचमूच देवगुरु को हृदय - पूर्वक गिड़गिड़ाते हो ?: संसार की लीला कितनी विचित्र है ? किसी को नहीं झुकनेवाला मानभट पत्नी के पैरों पड़ता है । इतना हृदयपूर्वक प्रभु के आगे झुकना - गिड़गिड़ाना, और गुरु के आगे झुकना, गिड़गिड़ाना आपको आता है ? आप झुकते हैं, यह मुझे मालूम है, लेकिन दिल से ? मानभट कैसे दिल से झुकता है । 'मैं पत्नी प्रेम के बिना बहुत दुःखी हो गया ।' ऐसा उसे लगा इसलिए नम्र बना है ? प्रभु का प्रेम प्राप्त न होने का खेद है ? क्या हमें कभी इस बात से बहुत दुःखी होने का अनुभव हुआ है कि हम पर प्रभु का प्रेम नहीं है । गुरु प्रेम के अभाव में ऐसा लगा है ? लगा होता तो देवाधिदेव के आगे और गुरु के आगे कैसे दीन हृदय से गिड़गिड़ा कर प्रार्थना करते ? प्रभु के सामने चैत्यवन्दन, स्तवन, स्तुति करते हो तब क्या सचमुच ऐसे दिल से करते हो ? इसमें भी ये स्तुतियाँ आदि सब कवियों की रचनाएँ, अतः किसीके काव्यमय शब्द बोलते हो, परन्तु अपनी चालू भाषा में - रोजमर्रा की बोली में - अपने हृदय के ऐसे वेदनामय गद्गद् उद्गार क्या प्रभु को सुनाते भी हो ? गुरु के आगे भी ऐसा करते हो ? इसमें परीक्षा होती है कि हमारे हृदय को देव गुरु के प्रेम के अभाव में दुःख - दैन्य जैसा लगा करता है या नहीं ? प्र. क्या देव गुरु प्रेमरहित होते हैं ? उ. देवाधिदेव और गुरु-साधु तो सब जीवों पर कृपा करुणा, प्रेम वात्सल्य वाले ही होते हैं । लेकिन जब तक हमारा दिल न कहे कि 'अहा...हा हा हा ! मुझ पर देवगुरु की तो कितनी सारी कृपा - वत्सलता और मेहर बरस रही है !' दिल में ऐसा न लगे तब तक उनकी विद्यमान वत्सलता भी हमें क्या काम लगेगी- क्या समझ में आएगी ? हमारे हृदय में इसकी संवेदना होनी चाहिए। यह न हो तो उसकी आशंसा के रुप में हम आजीजी करें - गिड़गिड़ाएँ कि 'प्रभु! मुझ पर कृपा कीजिए। मैं आपकी कृपा के बिना मर रहा हूँ । दया पात्र हूँ दया कीजिए।' 'लोगस्स' सूत्र में 'चउवीसं पि जिणवरा तित्थयरा मे पसीयंतु' बोलते हो न ? वह क्या है ? प्रभु के प्रसाद, प्रभु की कृपा के लिए हमारे हृदय की तीव्र आशंसा-अपेक्षा-अभिलाषा की अभिव्यक्ति । बात यह है कि हमारे मन को लगना चाहिए कि 'प्रभु के प्रसाद अर्थात् प्रभाव के बिना कुछ नहीं होगा। मोक्ष तो दूर रहा, एक शुभ भाव भी नहीं आएगा। उस प्रभाव को पाये बिना मैं कितना पीड़ित हूँ- दूःखी हूँ । बस, इस हेतु से दिल के दर्द के साथ प्रभु की दया की, प्रेम की रोते हुए हृदय से प्रार्थना है। दुनिया की कितनी ही वस्तुएँ न मिलने पर पीड़ा ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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