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________________ (१) सगे-मित्र-सज्जन-मालिक-नौकर-उपकारी आदि के प्रति घमंड कर के उनकी सहानुभूति तथा प्रशंसा खोता है! और (२) पराये-दुर्जन-नौकर मालिक-अनुपकारी आदि की ओर से मौका आने पर चपत खानी पड़ती है! यहाँ भी अभिमान तो अनेक अनर्थ पैदा करता है और परभव में भी अभिमान दुर्गति का मार्ग है.। - यह समझ कर ही साधु-पुरुष अभिमान नहीं करते । लघुता में प्रभुता-लघुता रखकर निर्मल यश प्राप्त करते हैं, चित्त में बादशाही शांति का अनुभव करते हैं। और - यही सच्ची प्रभुता है। आचार्यश्री मान के उपस्थित उदाहरण की ओर इशारा करते हैं - धर्मनन्दन आचार्य महाराज राजा से कहते हैं कि "हे नर श्रेष्ठ ! देखो! अभिमान एक बडे भूत के समान है। इस भूत से ग्रस्त आवश्यकता पड़ने पर अपने माता-पिता को भी जान बूझ कर मौत के मुँह में जाने से नहीं रोकता-यहाँ तक कि अपनी पत्नी को भी आत्महत्या करने से नहीं रोकता! जैसे कि यह पुरुष।" तब राजा पूछता है - "भगवान ! यहाँ तो अनेक बैठे हैं। उनमें वह कौन ? और उसने क्या किया था ?" ज्ञानी महर्षि कहते हैं - यह जो मेरे बाई और बेठा है, जिसने गर्दन ऊँची कर रखी है, चौडा सीना है, भंवें ऊपर उठी हुई हैं, जमीन पर पैर पटकता है और तुम्हारे सामने भी घमंड से देखता है वही आदमी इस स्वरुप में अभिमान की प्रतिमूर्ति है, यह समझ लो । सुनो! इसने क्या क्या किया है ?" ऐसा कह कर आचार्य महोदय अब उसकी कहानी कहते मानभट की कथा अवन्ती नामक एक देश है। उसकी राजधानी उज्जयिनी नामक नगरी है। उसके पडोस में कूपवृंद नाम का एक गाँव है। अतीत में वहाँ जो एक राजवंश चल रहा था, उस वंशमें उत्पन्न अभी क्षेत्रभट नाम का एक ठाकुर रहता था। पहले तो यह वंश बहुत सम्पन्नसमृद्ध था, परन्तु बेचारे इस अभागे के पास इसमें से कुछ नहीं रहा था। दुनिया की संपत्ति का स्वरुप ही ऐसा नश्वर है कि वह सदा के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी नहीं चलती ! अरे! एक पीढ़ी तक भी चले ही ऐसा कोई नियम नहीं । ऐसे भी लोग दिखाई देंगे जिनके बापदादों के पास सम्पत्ति नहीं थी, और खुदने कमाया; फिर भी वापस खुद ही उसे खोकर एकदम कंगाल और ऊपर से कर्जदार भी बन गये ! जब कि ऐसे भी मिलेंगे जिनके पास उनकी मृत्यु तक संपत्ति बनी रही, और बाद में सन्तान के हाथों अस्त-व्यस्त हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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