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यदि एक मोह पर अंकुश रखा जाय, इतना चिन्तन किया जाय कि, ऊंचे मानवभव में यह कुत्ते-गधे जैसी दुर्दशा कैसी ? इसमें कहाँ मोह घटनेवाला है ? अनाचार के सेवन से तो उल्टा मोह की वृद्धि होती है और अन्त में हाथ में कुछ नहीं आता।
(२) मोह हिताहित का विवेक भूलाता है :
मोहमूढ़ को अपना हित किसमें व अहित किसमें है, इस बात का कुछ भान नहीं होता। चलो, अहित का त्याग करुं और हित का आचरण करूं, यह तमन्ना भी नहीं होती।
कनककेतु राजा को राजगद्दी का मोह सता रहा था । पुत्र बड़े होकर राजगद्दी न हड़प ले, उन्हें राजगद्दी न देनी पड़े, इसके लिये जन्म लेते ही अपने पुत्रों के अंगुली, कान या कोई भी अंग में छेदन करा देते, जिससे वे राजा बनने के योग्य न रहे। इसमें हिताहित का भान कहाँ रहा?
आप ही विचार कीजिये कि एक या दूसरे प्रकार के मोह में कितना अहित का आचरण होता है ? और कितने सुलभ हितकार्य भी हम खो बैठते हैं ? शरीर की सुखशीलता का मोह सताता है, तो आलसी बनकर माता-पिता, वडिल या गुरुजनों की सेवा से भी वंचित रहना पड़ता है न?
राजन् ! मोह से मूढ़ चित्तवाला बना हुआ इन्सान ऐसा विवेकहीन बन जाता है कि वह बहन को पत्नी बनाता है और ईर्ष्या से पिता की हत्या कराता है, जैसे कि यह पुरुष।'..
राजा ने हाथ जोड़कर पूछा - 'भगवंत ! कौन है यह?' ।
आचार्य महाराज ने उसका परिचय देते हुए बताया - 'वासवमंत्री की दायीं और बैठा है न, वही आदमी!'
तब राजा पूछता है, 'प्रभो ! उसने मोह के वश बनकर ऐसा क्या किया, मुझे बताने की कृपा करेंगे?
तब आचार्य महाराज कहते हैं - 'महानुभाव ! वह अब भारी पश्चात्ताप के साथ शुद्ध होने के लिए निकला है। अब उसे अपने स्वाभिमान की रक्षा की भी कोई परवाह नहीं, इसीलिये इसकी जीवन-कथा का वर्णन करने में कोई हर्ज नहीं । मोह ने इस पर भारी जुल्म किया है, मोह से यह पागल जैसा उन्मत्त बन गया था। क्योंकि मोह का नशा ही ऐसा है कि इसके नशेवाला किसीकी कुछ नहीं सुनता, यदि सुना हो, तो बराबर समझता नहीं। मोह के नशे में इन्सान को कार्य, संयोग, स्थान कुछ नजर नहीं आता। हारे हुए जूआरी की तरह उल्टे विचार ही करता है। फिर वह न करने योग्य कार्य कर बैठे इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। इससे ऐसे ऊंचे मानव-जीवन में भी वह घोर पतन पाता है। इस बेचारे के जीवन में मोहवश आयी हुई उन्मत्तता के कारण किस प्रकार बहन को पत्नी बनाने व पिता की हत्या करने की घटना घटी, वह हम देखें। .
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