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सकते है ?
- पाप को साफ करने के लिये क्या-क्या करना चाहिये इसकी पूरी पद्धति व प्रक्रिया मुनिराज बताते हैं। वे कहते हैं ,
'हे भाग्यशाली ! प्रव्रज्या लेने से दूसरा सब तो त्याग हुआ, किन्तु शरीर तो साथ में ही रहता है, इसलिये इस पर कोई उपकार या अपकार करने के लिये आये, तो उसके प्रति राग-द्वेष होने की संभावना है। यह न हो, इसके लिये यह निश्चित कर कि कोई तुझे चन्दन से विलेपन करने के लिये आये या कोई बांस से छीलने के लिये आये, तो भी 'वह मित्र, वह शत्रु' ऐसा भाव नहीं लाना, दोनों को समान मानना । इसी प्रकार कोई स्तुति-प्रशंसा करे या कोई निन्दा करे , दोनों पर समभाव ही रखना । आज तक जीव राग-द्वेष कर करके दुष्कृत्य व भवभ्रमण करता चला आ रहा है । यह रोकने के लिये विषमभाव छोडकर समभाव में ही रमण करना पड़ेगा।
__ 'हे महानुभाव ! जीवों पर दया कर । स्वभाव ही दया-कोमलता-सहानुभूतिवाला बना दे, जिससे किसीके भी प्रति अन्तर में कठोरता का या निर्दयता-क्रूरता का भाव ही न जगे। दूसरों के प्रति दया का भाव उड जाने पर जीव में कठोरता का भाव जगता है, इसीलिये तो अपना स्वार्थ साधने के लिए हिंसा का सहारा लेते हुए भी वह नहीं हिचकिचाता । जीवों के प्रति दया का स्वभाव रखा हो, तो हिंसा-निर्दयता-कठोरता के द्वारा स्वार्थ नहीं साधा जाता।'
'हे भव्यात्मा ! शठता-दंभ-कपट-वक्रता का त्याग करना, क्योंकि इससे हृदय कलुषित बनता है और कलुषित हृदय में पवित्र भाव नहीं आ सकते । यह उच्च जीवन तो पवित्र भावों से भरने के लिये है, इसीलिये मूल में से ही शठता-वक्रता का त्याग कर देना चाहिये।'
__ 'हे नरवीर ! हमेशा मैत्रीभाव का चिन्तन करना । जगत का प्रत्येक जीव अपना लगे, सबके प्रति दिल में स्नेह ही जगे। किसीके प्रति द्वेष नहीं शत्रुता नहीं । कयोंकि
आत्महित की साधना करनी हो, तो वह निश्चित मन से होती है। दूसरों के प्रति वैरविरोध-दुश्मनी रखने पर चित्त उसीमें लगा रहता है, जिससे स्वात्महित का विचार करने का कोई अवकाश ही नहीं रहता । मैत्री भाव रखने पर चित्त ऐसे विचारों में नहीं पड़ता, चित्त स्वयं के ही दोष आदि का ध्यान रखकर उनको हटाने का विचार करता है । समरादित्य के जीव ने भवोभव के दुश्मन अग्निशर्मा के जीव पर शत्रुभाव न रखा, तो चित्त उसकी उधेडबुन में न पड़ा। मैत्रीभाव रखने से दिल शान्त रहा व स्वयं की आत्मा के हित की ओर द्रष्टि करने का ही लक्ष्य रहा ।' . हे गुणवान ! चित्त में हमेशा मुक्तिभाव अर्थात् सबके प्रति निर्लोभता का चिन्तन करता रह, जिससे कभी भी किसीके प्रति स्पृहा का भाव न जगे। 'मुझे यह नहीं चाहिये,
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