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यह नहीं चाहिये ...' ऐसा वारंवार सोचते रहने से लोभ से मुक्ति मिलती है। चिन्तन के बिना संस्कार मजबूत नहीं होते। संस्कार मजबूत न होने पर अवसर आने पर पहले से चली आती हुई रीत-रसम से बचा नहीं जा सकता । इसीलिये रोज मुक्ति-निर्लोभता-निर्मलता का चिन्तन करने की अत्यन्त आवश्यकता है।
मुक्ति के दो अनन्य उपाय :महामुनि आगे कहते हैं; 'कुणसु तवं, जेण तुमं तावेसि कम्ां भवसयनिबद्धं ।
हो सु य संजम-जमिओ, जेण ण अज्जेसि तं पावं ॥'
अर्थात् तू तप कर, जिससे सैकडों भवों में बांधे हुए कर्मों को तू तपा देगा, जला देगा। तू संयम से नियंत्रित बन जा, जिससे तू नये पापों का उपार्जन न करे।
महर्षि ने सिर्फ पाप ही नहीं, संसार से सर्वथा मुक्ति पाने के दो रामबाण उपाय बता दिये । संसार पापकर्मों के बन्धन के आधार पर चलता है और नये-नये पापों के उपार्जन से उन पापों के पोषण से उसका प्रवाह सतत-चालु ही रहता है। इसीलिये महर्षि कहते हैं कि तू तप कर, जिससे सैकड़ों भवों के कर्म जलकर खाक हो जायें तथा संयम से नियंत्रित बन, जिससे नये-नये कर्मों का बन्धन रुक जाय । इस तरह होते-होते एक ऐसा स्वर्णिम दिवस उदित होगा कि केवलज्ञान प्राप्त होगा व मोक्ष होगा।
तत्व की समझ के बिना भी प्रभु के आलंबन से महा तप-संयम का बल :
परमात्मा महावीर ने स्वयं ने इसी प्रकार से केवलज्ञान व मोक्ष पाया है, तो हमें भी उनका आदर्श नजरों के समक्ष रखकर तप व संयम में लगे रहना है, भगवान तो परम आलंबन हैं। बहुत शास्त्र न पढे हों, तप-संयम के तात्विक मर्म न समझे हों, फिर भी यह विचार यदि बार-बार करते रहें कि- 'मेरे वीर प्रभु ने क्या किया था? उन्होंने महातप व महा संयम की कैसी साधना की थी ? मुझे भी "महाजनो येन गतः स पन्थाः-महापुरुष जिस मार्ग पर चले, वही मेरा मार्ग... ऐसा विचार रखना चाहिये अर्थात् भगवान के आदर्श को याद करें, तो हमें भी तप-संयम की महान प्रेरणा-प्रोत्साहन मिले; महा बल मिले व हम भी तप-संयम की महान साधना में लगे रहें।
दुनिया में हर क्षेत्र में जीव इसी तरह तो प्रेरणा व उत्साह पाकर आगे बढ़ता है।
उस आदमी ने तो छोटे पैमाने पर धंधा शुरु किया था, आज वह कितना आगे बढ गया ! इस तरह करते हुए मैं भी आगे क्यों नहीं बहुँ ? उस आदमी ने एक छोटी-सी फेक्टरी शुरु की थी आज वह बडे कारखाने का मालिक बन गया है, मैं भी उसीकी तरह आगे बढुंगा । वह आदमी तो कैसा दुबला-पतला था, परन्तु कसरत करते-करते बलवान बन गया ! तो मैं क्यों नहीं हो सकता? इन सब आलंबनों को नजर के समक्ष रखकर पुरुषार्थ होता है. तो फिर धर्मसाधना में भगवान का व महापुरुषों का आलंबन लेकर क्यों पुरुषार्थ
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