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________________ कुवलयमाला -२ मान कषाय चरित्रकार विद्वद्-विभूषण आचार्यदेव श्री उद्योतनसूरिजी महाराज ही देवी के आदेश से कुवलयमाला चरित्र की रचना करते हुए, चरित्र में बता चुके हैं कि राजकुमार कुवलयचंद्र बरसों तक एकान्त में गुरु के सान्निध्य में विद्याध्ययन करने के बाद बाहर आने पर पहली घुडसवारी में अश्व के द्वारा आकाश में ले जाया जाता है; दूर जाने पर इसका रहस्य खोजने के लिए अश्व को छुरा भोंकने से अश्व लहूलुहान हो कर एक जंगल में नीचे उतर पड़ा। वहाँ दैवी वाणी से प्रेरित कुमार आगे जाकर ऐसे प्रदेश में आ पहुँचता है जहाँ सिंह, बाघ, हिरन, खरगोश आदि शांति से मित्रता पूर्वक साथ घूमते-फिरते हैं । ऐसी विचित्र मैत्री के कारणस्वरुप आगे बढ़ने पर-एक महर्षि को देखता है। उनके पास एक ओर ओक देव और दूसरी ओर एक सिंह बैठा दिखाई देता है। महर्षि कुमार से इसका रहस्य वर्णन करते हैं कि वह कैसे और किसके द्वारा अपहरण की स्थिति में डाला गया। यह रहस्य बताते हुए वे राजा पुरंदरदत्त तथा वासवमंत्री के अधिकार (कथानक) से शुरु करते हैं। राजा जैन धर्म से नितान्त अपरिचित है। उसे परिचित करवाने के लिए मंत्री उसे अप्रकट ढंग से चतुराईपूर्वक उद्यान में लाकर अवधिज्ञानधारी महर्षि श्रीधर्मनन्दन आचार्य की मुलाकात करवाता है। राजा पुरंदरदत्त आचार्य महाराज से वैराग्य का कारण पूछता है। वे श्रीमान् संसार की चार गतियों में विविध प्रकार के कैसे कैसे दुःख होते हैं सो बताते हैं। तत्पश्चात् वासवमंत्री के पूछने पर ऐसे दुःखद संसार के कारणभूत क्रोध-मान-माया-लोभ और मोह के स्वरुप का वर्णन करते हैं। इसमें क्रोध की भयंकरता, वहीं उपस्थित चंडसोम के जीवन प्रसंग कह कर हूबहू स्पष्ट कह चुके हैं, जिसके अन्त में चंडसोम ने उसी वक्त दीक्षा ले ली वह प्रथम भाग में बताया। अब आचार्य महर्षि आगे कहते हैं - 'हे नरश्रेष्ठ ! अब तुम संसार का दूसरा जो कारण ‘मान कषाय' है सो कितना भयानक है, वह देखो।' माणो संतावयरो, माणो अत्थस्स णासणो भणिओ। माणो परिहवमूलं, पियंवदाण णासणो माणो ॥ (१) मान, संताप करानेवाला है। (२) मान धन का नाश करनेवाला कहाँ गया है । (३) मान अपमान - अवगणना दिलाता है (४) मान प्रिय-स्नेहीजनों को खोने का कारण बनता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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