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________________ के पहाड़ टूट पड़ने पर इन्सान मौत मांगता है, परन्तु कर्म की लीला निराली है ! मांगने से मौत नहीं मिल जाती । बंधन से जकड़ा हुआ लोभदेव मरने कहाँ जाय? मरना भी आसान नहीं : आप ऐसा मत मान बैठना कि ऐसे अवसर पर मरना भी आसान है ! कर्मयोग से ऐसी पराधीन दशा हो, तो मरा भी नहीं जा सकता । नरक के जीवों को नारकीय पीड़ा से छूटने के लिये मरने की बहुत इच्छा होती है, फिर भी वे ऐसा कर नहीं पाते । वहाँ आयुष्य कर्म बलवान है। निरुपक्रम आयुष्य होने से बीच में आयुष्य टूटता नहीं। यहाँ दुष्ट लोग इतनी सावधानी रखते हैं कि मांस व खून निकालते हुए कहीं लोभदेव मर न जाय । उसे इस तरह से कसकर बांध रखा है कि वह कहीं भागकर भी न जा पाये ! सचमुच संसार में कर्म की विडंबना पर विचार करने जैसा है ! कर्मसत्ता का प्रमाण :- कर्म बांधते वक्त इन्सान यह विचार नहीं करता कि हँसते-हँसते ये पाप तो मैं कर रहा हूं, परन्तु इन कर्मों का फल जब भुगतना पड़ेगा, तब किस प्रकार सहन होगा? क्या कर्म बांधने जैसी चीज नहीं है ? तो फिर यहाँ इस दुनिया में सब जीवों पर इतने अत्याचार, दुःख, संकट बरस रहे हैं। किस कारण से ? किसीका सोचा हुआ कुछ नहीं होता और न . सोचा हुआ, दुःख आ पड़ता है। किस कारण से ? बांधे हुए कर्मों का यह फल है। इसीलिये कर्म बांधने से पहले सोचिये । 'बंध समय चित्त चेतीये रे, . उदये श्यो संताप .... सलुणा' । कर्म उदय में आये, वे तो सहन करने ही पड़ेंगे । वहाँ हाय-हाय करने से क्या फायदा? व्यर्थ ही नये कर्म बंधते हैं। कर्म बांधते वक्त ही चेतने जैसा है। कर्म बांधने के बाद तो तीर्थंकर की आत्मा को भी नहीं छोड़ते । लोभदेव १२ वर्ष तक इस प्रकार अंगछेदन व जलन की अपार वेदना भुगतता है, परन्तु उसे मौत नहीं आती। उसके दुःख के बारे में आप सोचिये व उसी पर रहम खाने के बजाय स्वयं के बारे में सोचिये कि क्या पता मुझे भी इस जन्म में अथवा आगामी जन्म में ऐसा दुःख देनेवाले मेरे कोई कर्म कहीं छुपे हुए होंगे तो? इसीलिये मुझे वर्तमान में सुख मिला है, तो इसका अभिमान करने जैसा नहीं है और न ही संतोष मानकर बैठने जैसा है । मैं किस प्रकार कर्मनाशक उपायों का सेवन करूं? जीवदया, जिनभक्ति, रसत्याग, सतत तपस्या आदि के लिये मैं उद्यम व पुरुषार्थ किया करूं ।' दूसरों का दुःख जानने-सुनने के बाद यही करने जैसा है। यदि सिर्फ दूसरों का दुःख देखकर सोचें – 'बेचारा कितना दु:खी है!' इससे स्वयं को क्या प्रेरणा मिली? स्वयं तो एकदम खाली ही रहे न ! लोभदेव का शरीर हाड-पिंजर जैसा बन गया है। वह सोचता है कि 'अरे! अब तो यह वेदना सही नहीं जाती और यहाँ से छुटकारा मिले, ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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