________________
मिले हैं, या नास्तिक जैसे हमे जो संसारी स्वजन मिले हैं, उनकी तुलना में हमें ये कैसे वीतराग सर्वज्ञ, परम दयालु ऊँचे देव, कैसे तारक, कैसे स्नेही मिले हैं ! इस प्रकार तुलना करें, तो प्रभु पर व उपकारी त्यागी गुरु पर हृदय फिदा हो जाता है, हृदय भर आता है।
परन्तु संभव है कि इसके लिये हृदय को कोई धक्का लगने की जरुरत हो ! सहज रूप से चलते हुए जीवन में यह होना मुश्किल है। संसार में कोई स्वजन यकायक मर जाय, पुत्र दुर्घटना का शिकार हो जाय, लाखों रुपयों का घाटा हो जाय... ऐसा कुछ होने पर हृदय को धक्का पहुँचता है व हृदय भर आता है। इसी तरह आत्मा को कोई बडा घाटा दिखे, कोई अनुपम अवसर हाथ में से गया, ऐसा महसूस हो, कोई महापाप होने पर भान आये, तो हृदय को धक्का पहुँचता है और हृदय भर आता है। यहाँ देखिये के मोहदत्त से अनजान में पाप होने पर मुनि ने पहचान करायी कि 'तूने शत्रु समझकर तेरे पिता को मार डाला , परायी कन्या समझकर सगी बहन को प्रिया बनाने गया, कन्या की रक्षिका समझकर माँ के समक्ष ही काली करतूत करने के लिये तैयार हुआ'। यह सुनकर मोहदत्त को सदमा पहुँचा, हृदय भर आया कि 'मैं कैसा पापी ! कैसे हैं ये अनन्य उपकारी गुरु !' गद्गद् हृदय से वह गुरु से पूछता है, 'प्रभु ! मेरे ये जालिम पाप कैसे नष्ट होंगे?'
बस हमें अपने किसी पाप, कोई महान भूल, कोई जालिम दोष के प्रति आघात पहुँचे अथवा किसीकी अकाल मृत्यु ; अकल्पित आपत्ति या बरबादी देखकर 'मेरे साथ भी ऐसा हो जाय तो?'... ऐसे विचार से हृदय को धक्का पहुँचे, तो हृदय भर आता है, देवगुरु पर हृदय फिदा हो जाता है, उनकी शरण ली जाती है। उनकी सच्ची पहचान होने पर हृदय भर आता है। हृदय भर आने पर उनका आलंबन सहज में ही लिया जाता है। 'मेरे प्रभु ने, मेरे गुरु ने इतनी साधना की, तो मैं भी क्यों न करूँ ?' इस प्रकार उल्लास. आता है, उत्साह पैदा होता है व साधना में आगे बढा जाता है।
मुनि आगे कहते हैं, ' हे सुज्ञ ! संसार त्याग, प्रव्रज्या, समभाव व तप-संयम की तरह असत्य का त्याग कर। कदापि झूठ मत बोलना व अन्य का घात करनेवाला बने ऐसा सत्य भी मत बोलना। पापमात्र का त्याग करके हमेशा पवित्रता को धारण करना । अनीति, अन्याय, बेईमानी का अंश तक मन में पैदा न होने पाये। परिगृह का त्याग करना। नौ वाड का बराबर सावधानी रखकर विशुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करना।'
मोहदत्त की धर्म में छलांग :
मोहदत्त को मुनिराज कहते हैं कि ब्रह्मचर्य सहित दस प्रकार के क्षमादि यतिधर्म का पालन तू बराबर करेगा, तो अन्त में ऐसे स्थान को पायेगा, जहाँ न जन्म है, न मरण , न राग हैं, न दुःख, ऐसे शाश्वत शिवसुखमय मोक्ष को तू पायेगा।
तब मोहदत्त कहता है, 'भगवंत ! यदि आपको मुझमें योग्यता दिखे, तो मुझे ऐसे धर्म-पालन की दीक्षा दीजिये।' ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org