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________________ घोर जल्म में एक क्षण भी विश्राम नहीं। सिर्फ छेदन ही नहीं, भाले से भेदन भी होता है, फल की छाल की तरह पूरी चमडी छीली जाती है, यंत्र में पीसा जाता है, शिला के नीचे कुचला जाता है, पत्थरों की वर्षा से सर व अंग टूटते हैं, भट्टी में जलाया जाता है, उबलते हुए धातु के रस या तेल में तला जाता है। इन सबसे नरक का जीव सतत भयंकर यातना सहन करता है। नरक की वेदना से देवता भी नहीं बचा सकते :-. यदि यह बात लक्ष्य में रहे, तो मन को ऐसा होता है कि यदि भूल से भी रौद्रध्यान, कृष्णलेश्या, कषाय या मम्मण सेठ जैसी भारी धन-मूर्छा में नरक का आयुष्य बंध जाय, तो जीव की क्या दशा हो? वहाँ कौन बचानेवाला है ? बलदेवजी देव बने । कृष्णजी को नरक से बचाकर बाहर निकलने के लिये गये। उन्हें उठाया, परन्तु उनके नारकीय शरीर से नरम गुड़ हाथ में लेने पर बूंदें टपकें, इस तरह मवाद टपकने लगा। इसकी इतनी भयंकर वेदना होने लगी कि कृष्णजी को कहना पड़ा - 'भाई ! मुझे यहीं रहने दो। यह वेदना सही नहीं जाती।' और उन्हें वहीं रखना पड़ा ! कहने का तात्पर्य यह है कि... नरक की अति घोर वेदनाओं से कोई बचानेवाला नहीं है। दुनिया में ज्यादा से ज्यादा दर्शन होते हैं - पाप के फलस्म दुःखों के। ये देख-देखकर अपने दुःख में मन को न बिगाड़ना, नये पाप न करना और धर्म के लिये कष्ट अच्छी तरह से उठाना ! लोभदेव के मांस के टुकड़े क्यों काटे जा रहे हैं ? जब धर्मनंदन आचार्य महाराज ने कहा कि लोभदेव के शरीर में से दुष्ट आदमी मांस के टुकड़े काटते हैं और खून इकठ्ठा करते हैं । तब पुरंदरदत्त राजा का वासव मंत्री पूछता है कि भगवन् ! ये लोग मांस व खून क्यों ले रहे होंगे? __ आचार्य महाराज इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं - वहाँ समुद्र के तट पर एक ऐसा सर्प होता है कि जो समुद्र में घूमता है व लाल वर्ण का होता है। उसे आकर्षित करने के लिये आदमी सर पर शहद मिश्रित किया हुआ धान्य व गंध की टोकरी लेकर घूमता है, जिससे वह सर्प आकर्षित होकर किनारे पर आता है ; तब वे दुष्ट पुरुष उसे पकड़ लेते हैं और उसके आगे ढेर सारा मांस, खून व जहर धरते हैं। उन्हें खा-पीकर सांप तगड़ा होता है। फिर वे लोग उसे मारकर उसके शरीर के हजारवें अंश से धातु में मिलाकर सोना बनाते हैं। बड़े शहर के बाजार में सोना तो जितना चाहो उतना आसानी से बिक जाता है, इसलिये इन द्वीपवासियों का इस रीति से सोना बनाने का धंधा जोरदार चलता है। इन्सान को विशिष्ट बुद्धिशक्ति मिली है, तो इस बुद्धिशक्ति का उपयोग वह कहाँ व किस हद तक करता है ? बुद्धि का उपयोग आत्मा के हित के लिए नहीं करना है । जीवों की वैज्ञानिक तरीके से हिंसा कर-करके भौतिक सुख-समृद्धि व सुविधायें बढ़ानी हैं। इस बुद्धिशक्ति को क्या कहा जाय ? अर्थ-काम की ही लालसा हो, वहाँ जीवों पर दया कहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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