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________________ भाषा का उपयोग करें। परन्तु यह करना नहीं आता और सिर्फ जाँच-जाँच ही करना आता है। जाँच कर कितनी शोभा की? क्या भला किया? जीवन की जाँच करो तो दिखाई देगा कि 'कितना बेढंगा जीवन बीत रहा है?' ऐसे कितने ही तत्त्वों के सेवन हो रहा है जो जीवन के लिए उपयोगी नहीं है; ध्यान रखकर देखो तो यह दिखाई देगा। इसकी परीक्षा और उसकी परीक्षा; लेकिन परीक्षा करने के बाद भी जीवन को अच्छा बनाने वाली उचित प्रवृत्तियों की बात ही नहीं। इसकी जिज्ञासा और उसकी जिज्ञासा; फलाँ बात कैसे हुई ? अमुक क्या? यह कौन गया? ऐसी कुछ न कुछ फूटकर इधर उधर की बातें देखने परखने के लिए व्यर्थ हैरान होना, ताक-झाँक करना, जैसा-तैसा पढ़ना, ऐसी ही व्यर्थ की आतुरता रखना यहाँ तक कि शास्त्र की बातों में भी 'इसका क्या? वैसा क्यों?' आदि कोरी जिज्ञासाएँ उपस्थित करना और उन्हें तृप्त करने इन्द्रियों और शरीर को दौड़ाते रहना - यही जीवन है न? जीवन जीने-निभाने के लिए है, तो उसका कोई उपयोग? हाँ जीवन को अशांति और विह्वलता से पूर्ण बनाने का विचार रखा है। कैसा अज्ञान ? ढ़ेरों आतुरताओं, जिज्ञासाओं को पालने के बाद उसका नतीजा रागादि और काम क्रोधादि की बहुतायत के रुप में होता है। तो जीवन को सुन्दर बनाने की कोई प्रवृत्ति ही नही? दुनिया में देखेंगे तो दिखाई देगा कि अधिकतर कोरी-निरुद्देश्य चर्चाएँ, भाषणबाजी, गलत जिज्ञासाएँ, और अपनी राय प्रकट करने की चाल सी पड गयी है। लेकिन यह सब सिर्फ शब्दों और बातों में ही कुछ भी सुधारने का सक्रिय प्रयत्न ही नहीं । बरसों बीत गये, वही चीख पुकार वही शिकायतें । वही के वही भाषण और सफेद पर काली लिखावटे इतना सब करके भुना हुआ पापड भी टूट सका? ऐसी शक्ति नहीं है। निपुणता नहीं है, जरुरत नही है। निपुणता है केवल मन से फूस फटकारने की, तामसी कषाय करने की और मुँह से बकवास करने की । जीवनोपयोगी संगीन कुछ करना नहीं है, और अनुपयोगी ढेर सारी प्रवृत्ति करनी है। ___मानभट को ऐसी ही निरर्थक इच्छा हुई, खुजली सी उठी कि 'पत्नी के प्रेम की परीक्षा करूँ। और वह कुएँ में शिला फेंककर खुद पेड़ के पीछे छिपकर खड़ा हो गया। देख रहा है कि पीछे से आती हुई पत्नी यहाँ आकर क्या करती है ? कितना विकट साहस! मनुष्य को भान नहीं होता कि 'मैं जरासी खजली पैदा कर उसे खुजलाने जाऊंगा, उससे कितना बड़ा अनर्थ खड़ा होगा? यह खयाल नहीं होता और साहस कर बैठता है। लेकिन उससे भयंकर अनर्थ हो जाता है। मानभट की पत्नी जो अब कुएँ में पत्थर गिरने की आवाज की प्रतिध्वनि उठी सो सुनी, सुनते ही उसके मन को भय लगा कि 'हाय ! पति ने कुएँ में छलांग लगा दी है, उसकी वह आवाज उठी है।' उसके रोंगटे खडे हो गये, साँस जोर से चलने लगी। शीघ्र कुएँ के निकट पहुँची। वहाँ आसपास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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