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________________ कहना ही होगा कि यह सब सीताजीके ऐसे कर्म ही करवा रहे हैं। ऐसे ही, कीलें ठोकने वाले उस ग्वाले की इतनी हद तक क्रूरता करने की बुद्धि का कारण भी प्रभु महावीर के पूर्व कर्म ही हैं । यहाँ जरा पूछिये कि - प्र. तो फिर क्या ग्वाला निरपराध है ? यहाँ तो प्रभु के कर्म ही ऐसी क्रूरता करवा रहे हैन ? उ. नहीं निरपराध नहीं, क्योंकि ऐसी क्रूरता करने में उसके अपने भी इस तरह के कषाय मोहनीय कर्म और अशुभ मनोयोग तथा काय योग अर्थात् अपना असत् पुरुषार्थ कारणभूत है ही । साथ ही निमित्त रुप में प्रभु के कर्म भी उसमें शामिल होते हैं । अर्थात् अपने काषायिक भाव तथा असत्प्रवृत्तियाँ अपने को दोषी बनाते ही हैं। यह सही है कि इस दुष्टता में दूसरों के उस तरह के अशुभ कर्म निमित्त तो बन जाते हैं, लेकिन मुख्य कारण तो अपना असत् पुरुषार्थ ही है । बुद्धि बिगड़ने के कारण : अतः इस पर से निष्कर्ष निकलता है कि - (१) एक तो खुद की बुद्धि बिगड़े, बुरे भाव जगें उसमें खुद के मोहनीय कर्म कारणभूत हैं । (२) दूसरा यह कि उस बुद्धि पर गलत विचार किये जाएँ, बुरे वचन बोले जाएँ, या अशुभ प्रवृत्ति की जाए, उसमें मुख्यतः अपना असत् पुरुषार्थ ही कारणभूत है । (३) तीसरी बात यह कि इससे जिसका नुकसान होनेवाला होता है उसके भी अपने अशुभ कर्मो का उदय इसमें निमित्तभूत है । इसीलिए तो धवल सेठ की बुद्धि भ्रष्ट हुई और उसने श्रीपाल कुमार को सागर में डाला; कुछ समय के लिए श्रीपाल के जहाज और दो पत्नियाँ छीन ली; इसमें, श्रीपाल कुमार के अपने भी अशुभ कर्मो का उदय कारण अवश्य है । अत: अब समझ में आया होगा कि किसी को नुकसान हो ऐसी दूसरे की बुद्धि बिगडे और वह ऐसा काम करे तो बुद्धि बिगडने में नुकसान भुगतने वाले के अशुभ का उदय निमित्तभूत हुआ । अब परिणाम की दृष्टि से देखें तो दूसरे की बुद्धि बिगड़ने में और अनुचित आचरण करने में किसी का अशुभोदय भले ही निमित्त बना हो और इसलिए आप शायद कहें कि 'यह क्या करे बेचारा ? उस दूसरे के कर्म के उदय से इसकी बुद्धि भ्रष्ट हुई।' तो नहीं यह निर्दोष नहीं है। नियम ऐसा है कि जो कोई अपनी बुद्धि को बिगाड़े वह गुनहगार है, उसे पाप अवश्य लगता है। अशुभ अध्यवसाय अवश्य अशुभ बन्ध कराते हैं। अत एव नुकसान भोगने वाला यदि अपनी बुद्धि को न बिगाड़ें तो नुकसान होने - मात्र से गुनहगार नहीं बनता । तात्पर्य - पहले के अशुभ कर्मों को बुद्धि विकृत किये बिना जो शांति से भोग ले १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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