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यह टालने के लिये कवि कहते हैं 'हे विवेकी ! विमलाचल वसीए' .. अनंत मुनियों को मोक्ष दिलानेवाले श्री सिद्धाचल का आश्रय लें। इससे इस गिरिराज की व अनंत वीतराग बने हुए मुनिवरों की मुग्धता लगती है; मन उनमें बस जाता है, खुश होता है, जिससे मायामोहिनी में मोहित होना टल जाता है। घर बैठकर भी उसका ध्यान धरने से यह हो सकता है। कवि ज्ञानविमलसूरिजी कहते हैं - 'घेर बेठा पण ए गिरि गावे रे, श्री ज्ञानविमल सुख पावे रे
__नागर सज्जना रे कोई' कहने का तात्पर्य यह है कि संसार अरण्य-रुदन से बचना हो, तो माया-मोहिनी का मोह हटाओ, यही रुलानेवाला तत्त्व है। इसे हटाने के लिये वीतराग का आलंबन लो।
इसलिये यह भी समझ में आयेगा कि संसार क्यों असार है ? क्यों बुरा है ? अरण्य-सदन कराता है, इसलिये।
दो बच्चों को खोने से सुवर्णदेवी अरण्य-रुदन कर रही है। धीमे-धीमे आगे बढ़ी। क्रमशः पाटलिपुत्र पहुंची। अब सोचने लगी कि कहाँ जाऊं? भवितव्यतावश दूत के वहां नौकरी के लिये जा पहुंची, जिसने बाघनी के मुंह में से गिरी हुई उसीकी बालिका को लाकर अपनी पुत्री के रुप में रखा था। दूत ने बालिका को संभालने के लिये, लालनपालन करने के लिये उसे रख लिया।।
___ सुवर्णदेवी बालिका को अपनी पुत्री रुप में पहचान नहीं सकी । क्योंकि जंगल में उसे जन्म देकर तुरन्त एकान्त में छोड़कर नहाने चली गयी थी। वापिस लौटी, तब तक बालिका गायब हो गयी। वह बालिका इस नगर के इस घर में होने की कल्पना भी कहाँ ' से हो? जन्म देकर तुरंत ही छोड़ दी, अत: चेहरा भी एकदम बराबर लक्ष्य में न भी हो, और बालिका हो, तो बालक भी होना चाहिये न? अरे! जंगल में कोई हिंसक प्राणी भी बालकों को उठा ले जाने की काफी संभावना थी। इन सब कारणों से ही उसे यह कल्पना ही नहीं होती कि यह मेरी ही पुत्री है ! और यहाँ दूत व उसकी पत्नी उस बालिका को स्वयं की पुत्री की तरह ही रखती है, इसलिये भी ऐसी कोई कल्पना होने का सवाल ही नहीं उठता।
फिर भी खून एक है व सुवर्णदेवी खूब दुःखियारी है, इसलिये इस बालिका पर बहुत प्रेम बरसाती है। यहाँ सवाल उठता है कि -
प्र. -'सुवर्णदेवी को अपनी बच्ची लालन-पालन करने के लिये मिल गयी इसमें दोनों के पुण्योदय को कारण माना जाय न?
उ. - नहीं ! अकेला पुण्योदय ही कारण नहीं, क्योंकि सुवर्णदेवी का अब पुण्य तो इतना ही है कि वात्सल्य बरसाने के लिये, खिलाने के लिये कोई बच्चा मिले ! बालिका का पुण्य भी इतना कि कोई अच्छी संभाल लेनेवाला मिल जाय । पुण्य के उपर किसी व्यक्ति की छाप नहीं होती कि यही व्यक्ति खिलाने, क्रीडा कराने के लिये मिले। या यही
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