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________________ कैसे रहा ? बाघनी को मरणान्त कष्ट का पापोदय जगा तब न? कैसी अजीब बात है। संसार में लाभ पानेवाले का पुण्य तो है, परन्तु वह उदय में आने के लिये दूसरे जीव के पापोदय पर उसे आधार रखना पड़ा। दूसरे का पापोदय जगे, तब हमारा पुण्योदय हो यह कैसी विचित्रता ! ग्यारह बजे गरमागरम भोजन पुण्य के बिना नहीं मिलता। परन्तु यह मिलने का पुण्योदय कब जगता है ? असंख्य स्थावर जीवों को मृत्यु के महा दुःख का पाप उदय में आये तब ! कसाई को अमीरी का पुण्य कब उदय में आता है ? उसके हाथों कटकर मरनेवाले पशुओं को मरणान्त कष्ट का पाप उदय में आये तब।। सब प्रकार के पुण्योदय में ऐसा नहीं होता। ऐसे ही पुण्योदय होते हैं कि जो दूसरे के पापोदय पर ही आधारित हैं। कसाई की खून की लक्ष्मी की ही तरह वे खून के लड्डू जैसे हैं । संसार ऐसे अशुभ पुण्योदय पर खुशी-आनंद देता है, इसीलिये यह असार सुवर्णदेवी दो बच्चों को छोड़कर नहाने गयी, इतने में बाघनी बच्चों को उठाकर ले गयी। यह उसकी द्रष्टि से बुरा हुआ, ऐसा लगता है। परन्तु इसमें अच्छा तत्त्व यह था कि यदि स्वयं भी वहाँ उपस्थित होती तो स्वयं को भी बाघनी के फाड़ खाने की संभावना थी, लेकिन नहाने जाने के कारण स्वयं उसमें से बच गयी। __ परन्तु सुवर्णदेवी को यह पता नहीं, हित का विचार नहीं, इसलिये नहा-धोकर वह लौटी, तो उसने देखा कि बच्चों की गठरी वहाँ है ही नहीं। वह जोर-जोर से रोने लगी - 'हाय पुत्र ! तू कहाँ चला गया? क्या तुम दोनों को जंगली प्राणी खा गया? मैं कैसी मूर्ख कि तुम्हें अकेले छोड़कर चली गयी? हे दैव! तेरी कैसी क्रूरता? बच्चों को उठवाने से पहले मुझे क्यों नहीं खत्म कर दिया?' संसार-अरण्य में सदन करने का अवसर क्यों आता है ? देखिये महाकवि वीरविजयजी महाराज इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहते हैं - " 'माया-मोहिनीए मोह्यो, कोण राखे रणमां रोयो, आ नरभव एले खोयो, विवेकी ! विमलाचल वसीए' (माया-मोहिनी से भवारण्य-स्दन : 'माया' अर्थात् पैसे-टके, धनमाल, परिवार, सत्ता, सन्मान, आदि! 'मोहिनी' अर्थात् स्त्री व अन्य विषयसुख ! इन दो के मोह में फंसा हुआ जीव जब इसमें कहीं कुछ अनिच्छनीय परिस्थिति का सर्जन होता है, तब संसार रुपी जंगल में रोता है, तब कौन उसे शान्त करे? कोई नही । इस नरभव में इस माया-मोहिनी के पीछे दौड़े, परन्तु अन्त में हाथ क्या आया? अकेले ही रोने का अवसर आया । यह नरभव व्यर्थ ही गँवाया न ? संसार में अरण्य-सदन आने का कारण है, माया-मोहिनी में मुग्धता । यदि यह अरण्य-रुदन न आने देना हो, तो एक ही उपाय यह है कि यह मुग्धता टाली जाय । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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