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________________ चाहिये । ऐसी निद्रा, अज्ञानता, मूढ़ता टालने के लिये दुनिया के दुःख में तड़पते हुए जीवों के सामने देखिये कि उन्हें कैसी असह्य पीड़ायें हैं! ऐसी पीड़ा जो हम पर आ पड़े, तो सह नहीं पायेंगे और ओ बाप रे! कहकर पुकारने पर भी उसमें से छुटकारा नहीं मिलेगा । पाप दूसरों को दुःख देता है, तो क्या हमें नहीं देगा ? पाप हमें तो क्या बड़े से बड़े राजा व चक्रवर्ती को भी नहीं छोड़ता । लोभदेव पर नयी आफत :- उन दुष्टों के चंगुल से छुटा, तो दो बड़े भारंड पक्षियों की नोंक-झोंक में बीच में फँस गया है। जलन हो रही है, सही न जाये ऐसी दारुण वेदना है। हड्डियां टूटती हों, ऐसा लग रहा था, परन्तु छूटे कैसे ? आखिर दो पक्षियों की खींचातानी से उसका शरीर छूटा व आकाश में से सीधे गिरा समुद्र में ! में कैसी वेदना ? समुद्र जैसे ही लोभदेव समुद्र में गिरा, उसके ताजे जख्मों पर समुद्र का खारा पानी छूने से जलन बढ़ गयी । छोटे-से घाव पर थोड़ा-सा खारा पानी छूने पर कैसी जलन उठती है ? यहाँ तो सारे कटे हुए अंग पूरी तरह से खारे जल में डूबे हुए हैं। न तो मरा जाता है और न ही सहा जाता है । जलचर जंतु काट-काटकर पीड़ा में और अभिवृद्धि करते हैं । कवि कहता है कि वैसे तो वह समुद्र में डूब जाता, परन्तु शायद ऐसे विश्वासघाती घोर पापी जीव को रखने के लिये समुद्र भी तैयार नहीं। एक बड़ी लहर से उसे उछालकर किनारे पर फेंक देता है । लोभदेव किनारे पर: कर्म की महिमा : लोभदेव समुद्र में गिरा, परन्तु उसके नसीब जोरदार होंगे, जिससे समुद्र की लहरों ने उसे किनारे पर धकेल दिया । परन्तु यहाँ पर जंगली लोगों की बस्ती नहीं थी । यह सब कौन कराता है ? कर्म ! इन्सान की होशियारी व उद्यम कुछ काम नहीं आते। समुद्र की लहरों ने उसे असुरक्षित स्थान में न छोड़ा, यह भी कर्म की ही महिमा है न ? किनारे पर आने के बाद लोभदेव उठा व अन्दर की ओर गया । वहाँ उसे चन्दन के वृक्ष मिले। उनकी कोंपलों का रस निकालकर अपने घावों पर लगाया और फलों का आहार भी ग्रहण किया। आगे बढ़ने पर एक बड़ा बरगद का वृक्ष नजर आया और कुछ आगे बढ़ने पर आकाश का भाग रत्नों के फर्श जैसा नजर आया। बहुत बड़े संकट में से छूटा है, इसीलिये यह देखकर उसे विचार आता है कि 'वाह ! कितनी बढ़िया जगह है! ये देव क्यों इतनी सुन्दर जगह छोड़कर स्वर्ग में जाकर बसे होंगे ? क्या उन्हें सुन्दर - असुन्दर का पता नहीं चलता ? अथवा यह भी संभव है कि स्वर्ग में तो इससे भी कई बढ़िया स्थान, बढ़िया सामग्री व बढ़िया सुख होंगे। दुनिया में जरुर धर्म व पाप जैसी चीज है, नहीं तो धर्म के बिना वे देव ऊंचे सुख कैसे पाते ? इसी प्रकार पाप के बिना हम जैसे जीवों से भी अधिक भयंकर दुःखों में नरक के जीव क्यों तड़पते ? १६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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