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________________ १८ धर्म से सुख सुख चाहिये, उसका उपाय धर्म चाहिये : बेचारे लोभदेव ने १२ वर्ष तो पीड़ा सहन की ही थी ! उस पीड़ा में कुछ कमी रह गयी होगी, तो ये पक्षी उसे पीड़ा दे रहे हैं। कौन बचाये इस पीड़ा से ? पाप करते वक्त इन्सान विचार नहीं करता और पाप के फल स्वरुप दुःख भुगतने का अवसर आये, तब चिन्ता से जला करता है। जगत के जीवों की इस विषमता पर किसीने लिखा है कि 'धर्मस्य फलमिच्छन्ति, धर्मं नेच्छन्ति मानवा: 1 फलं पापस्य नेच्छन्ति, पापं कुर्वन्ति सादरा: 11 अर्थात् लोग धर्म का फल (सुख) चाहते हैं, परन्तु धर्म को नहीं चाहते । पाप का फल (दुःख) नहीं चाहते, और आदर - पूर्वक पाप करते हैं। कैसी विचित्र स्थिति है ! सुखचाहिये, परन्तु सुख देनेवाला धर्म नहीं चाहिये । दुःख नहीं चाहिये, परन्तु दुःख का कारणभूत पाप तो खुशी से करना है ! इस प्रकार सुख मिलेगा ? दुःख टलेगा ? यदि ऐसा होता हो, तो दुनिया में धर्म करनेवाले व पाप छोड़नेवाले बहुत कम हैं। ज्यादातर लोग धर्म से पराङ्मुख व पापाचरण में मस्त होते हैं। वे सब सुखी व दुःख-रहित होने चाहिये। परन्तु ऐसा नजर नहीं आता । अधिकांश लोग दुःख के लिये रोते हैं, सुख को चाहते हैं, परन्तु जिंदगी भर दुःख में तड़पते हैं, सुख देखने को नहीं मिलता। इसीसे सूचित होता है कि पाप से दुःख व धर्म से सुख मिलता है । सुख में भी धर्म क्यों सूझता है ? 'दुःखं पापात् सुखं धर्मात् सर्व शास्त्रेषु संस्थितिः ।' सर्व धर्मशास्त्रों की यह व्यवस्था है कि दुःख पाप से व सुख धर्मसे मिलता है। पूर्व के पाप-सेवन से यहाँ तो दुःख मिला ही है, परन्तु भविष्य में दुःख न चाहिये, तो पाप छोडो । दुःख के वक्त मन से कह दो कि 'यहाँ दुःख सह लुंगा, परन्तु नये पाप नहीं करूंगा ।' पूर्व के किसी धर्मसेवन से सुख मिला हो, तब भी मन से यही कहना कि 'यह सुख तो भोगने से पूरा हो जायेगा, इसके साथ ही साथ इसके पीछे रहा हुआ धर्मबल - - पुण्यबल भी समाप्त हो जाएगा । अब यदि यहाँ पापों का सेवन किया, तो फिर से दुःखों की फौज टूट पड़ेगी । इसीलिये मुझे पापों से कुछ लेनादेना नहीं, सुख में भी धर्म करूंगा ।' Jain Education International - जागता हुआ इन्सान तो दुःख व सुख, दोनों स्थितियों में पाप का त्याग व धर्म का सेवन ही चाहता है। सोये हुए इन्सान को, अज्ञान व मूढ़ इन्सान को सिर्फ पाप-सेवन ही १६३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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