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एक तू ही आधार, त्राण, शरण हो।'
अरिहन्त-शरण की रहस्य :
वीतराग प्रभु की शरण ग्रहण करना मतलब उन के निर्मल, भव्य, आत्मस्वरुप पर लक्ष्य केन्द्रित करना है। अब यदि दिल में हम किसी के भी प्रति अमैत्री, वैर-विरोध भाव, और द्वेष-ईर्ष्या-भाव आदि गाढ मैल-मालिन्य रखें तो प्रभु के निर्मल स्वरुप के प्रति आकर्षण-खिचाव कहाँ से पैदा हो ? एक भी दोष जिनमें नहीं, ऐसे अरिहंत से कहना है कि 'मेरे लिए तू ही शरण, तू ही त्राण है।' इस तरह यह शरण चित्त की स्वस्थता - स्वच्छता के लिए ग्रहण करना है, और दूसरी ओर मन में वैर विरोध भाव आदि ज्यों का त्यों - अखंड - रखना हैं, ये दो बातें कैसे बन सकती हैं ? जिसके पास जाते हैं, और जैसा बनने जाते हैं, उससे बिल्कुल विपरीत भाव मन में अखंड रखने हैं तो क्या यह नाटक नहीं ? ढोंग नहीं ? तो क्या इसलिए अरिहंत की शरण मे जाते हैं कि 'वे प्रभु हमें हमारे वैर विरोध, ईर्ष्या-द्वेष, तानाशाही जहाँगीरी में विजय दिलाएँ ?' वीतराग प्रभु के आलंबन में यह हो ही नहीं सकता। अतः अरिहंत की शरण अमैत्री - अकरुणा, आदि के त्याग के लिए ही होती है। इनका त्याग हो जाय तभी माना जाय कि अरिहंत देव की सच्ची शरण ली, पकडी, स्वीकार की है। वीतराग भगवान् की शरण वीतराग बनने के लिए ली जाती है, और वीतराग बनने के लिए बुनियादी बडे दोष अमैत्री-वैर-विरोध, निर्दयता-निष्ठुरता, ईर्ष्यागुणद्वेष और परचिंता-परदोषद्रष्टि दूर करने ही होते हैं। और वह सब दिल में मैत्री-करुणा प्रमोद और माध्यस्थ भाव बसाने से होता है।
इस प्रकार जगत के जीवमात्र पर मैत्री भाव-प्रेम-स्नेह आदि को मन में जगमगा कर बारबार वीतराग भगवान् की शरण ली जाय तो जीवन में किसी अवसर पर सख्त निराशा होने पर जीवन नाश और आत्महत्या के विचार करने के बदले विवेक पूर्वक जीवन को अरिहंत की आज्ञा की आराधना में लगा देने की संभावना होती है। मन को लगता है कि 'मरना ही है ? तो विधिपूर्वक क्यों न मरें?' भली भाँति जिनाज्ञा पालते पालते काया को कस कर अंतिम अनशनादि आराधना से क्यों न मरे?' मानभट की पत्नी और माता में यह विवेक नहीं था इसलिए बेचारे मानभट को कुएँ में गिर कर मरा समझ कर एक के बाद एक कुएँ में गिर पड़ी। तब मानभट के पिता वीरभट ने क्या किया? वह भी जल्दी जल्दी पीछे आ रहा था; इतने में उसने दूर से दोनों को कुएँ में गिरते देखा । इसलिए बड़े भारी आघात के साथ सोचने लगा -
मानभट के पिता की दशा :
'अरे ! मेरा बेटा पतोहू और पत्नी तीनों कुएँ में पड़े । फलत: मेरे कुल का तो उच्छेद ही हो गया न ? दुश्मन के हाथी के दन्तशूल पर मैं बड़े मजे से झूले झूला ! नतीजा? आसानी से शत्रु के हाथ मे पकड़े जाने या हाथी के पैर तले कुचले जाने के लिए
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