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________________ 328988 इतना ध्यान रहे कि प्रभु की सच्ची शरण ग्रहण करने के लिए पहले नंबर में जीवमात्र के प्रति मैत्रीभाव पैदा करना पडता है। मतलब ? यही कि अब जिनकी ओर से हमें आपत्ति आयी, निराशा मिली, उनके प्रति भी विरोध की गाँठ छोड दी जाय । और 'तुमने मेरा कुछ नहीं बिगाडा, मेरा जो बिगाडा सो मेरे अशुभोदय से बिगडा है। अन्यथा, तुम तो मेरे शत्रु नहीं, स्नेही हो । मेरे हृदय से तुम पर प्रेम बरसता रहे, तुम्हारा भला हो ।' यह भावना बनानी पडे। उसके प्रति स्नेह उभारना पडता है। उसके प्रति मैत्री भाव अपनाना पडता है, तभी प्रभु की सच्ची शरण स्वीकार करना और चित्त को सच्ची शांति मिलना संभव है । वैर-विरोध अमैत्री की गाँठ रख कर भगवत शरण स्वीकार नहीं किया जा सकता । पूछिये - उ. अरिहंत शरण कब आये प्र. - प्रभु की शरण के साथ मैत्री का क्या सम्बन्ध ? सम्बन्ध ऐसे कि - 'हम प्रभु की शरण स्वीकार करते है अर्थात् क्या करते है ? पहले इस का विचार करो । शरण माने त्राण, त्राण-शरण का अर्थ : आधार । आचारांग सूत्र में कहा है कि 'नालं ते ताणाए वा, सरणाए', अर्थात् धन-माल परिवार तेरे त्राण में समर्थ नहीं । तेरी शरण के लिए समर्थ नहीं । 'त्राण' अर्थात् परलोक दुर्गति के दुःख-आपत्ति - विटंबनाओं में से तुझे उबारने में शक्तिमान् नहीं हैं। वैसे ही 'शरण' अर्थात् "तुझे सुख-संपत्ति-स्वस्थता देने की इनमें ताकत नहीं है। सूत्र के टीकाकार महर्षि ने त्राण और शरण में यह अन्तर बताया है। अब यहाँ हम 'प्रभु की शरण हो' इसमें 'त्राण' शब्द न लेकर अकेला 'शरण' शब्द लेते हैं । अत: इस 'शरण' शब्द से त्राण और शरण दोनों का अर्थ लेना है। तात्पर्य यह निकला कि 'प्रभु' की शरण स्वीकार करना' अर्थात् हृदय में यह बसाना कि : शरण की भावना : Jain Education International 'हे प्रभु! सब प्रकार के दुःखों, आपत्तियों, विटंबनाओं में से बचानेवाले मेरे लिए एक मात्र आधार तू ही है ! और सब सुख, संपत्ति, स्वस्थता देनेवाले भी तू ही है । मुझे अटल विश्वास है कि तू परम आत्मा है, अतः शुद्ध अनन्त ज्ञान दर्शनवान् है । अनन्त शक्तिमान है, अनन्त लब्धिवान है, वीतराग-निर्विकार है। तुझे यह सब प्रकट है, और यही अपनी आत्मा का मुझे प्रकट करना है यह तेरे आलम्बन द्वारा ही, तेरी शरण से ही होनेवाला है । तुम्हारे इस निर्मल स्वरुप के साथ मेरा लक्ष्य बँध जाय तो फिर कोई दुःख, आपत्ति, विटंबना लगे ही नहीं, सुख, संपत्ति-स्वस्थता ही है, ऐसा लगे । इसलिए मेरे तो हे प्रभु ! For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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