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गया। ठीक है, प्रभु के मंदिर के जीर्णोद्धार में यह धन लगा देना। बहुत सुन्दर सुझाया किसे मालूम है, वापस अवश्य आएँगे या नहीं ? आएँगे भी तो भाग्य साथ में ही रहनेवाला है । ' कैसी, अनुपमा ? उसे हीरे माणिक के अधिक गहनों की ख्वाहिश नहीं होगी ? नयी नयी साडियों से सन्दूक भरने की इच्छा नहीं होती होगी तो इन के लिए धन रख छोडने का क्यों नहीं कहा ? कहिये, समझ ही ऐसी कि
अनुपमा की समझ :
जिसे पुन: शरीर में कैद होना हो वह धन दौलत को शरीर पर लगाता है । परन्तु जिसे परमात्मा बनना हो, वह उसे परमात्मा पर लगाता है। अनुपमा देवी में यह समझदारी थी, अतः उसने उल्टी सलाह न दी, अहित की नहीं दी, बल्कि हित की शिक्षा दी। इतना करने का भी मौका उसे कब मिला ? वस्तुपाल का लोभ देखा तब । क्रोध, मान, लोभ ऐसे हैं कि बाहर दिखाई पड़ जाते हैं, और इसलिए भाग्य हो तो उनसे पीछे हटानेवाला कोई न कोई कल्याणमित्र मिल जाता है ।
माया कैसी चालाकी करवाती है ?:
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माया बहुत ही बुरी है। बाहर प्रकट होती ही नहीं, अकेली स्वंय बाहर नहीं दिखती, इतना ही नहीं वरन् दूसरे दोषों को भी बाहर प्रकट न होने देने की चालाकी करवाती है कहिये, बात का अनुभव क्या ? मिसाल के तौर पर, हँसी-मजाक में झूठ बोला, और विनोद हो गया फिर क्या यह सचमुच कबूल किया जाता है कि 'नहीं, यह तो झूठ ही गपलगायी थी।' नहीं, ऐसा करने में अपना छोटापन महसूस होता है। 'मैं झूठ नहीं बोलता, ऐसी होशियारी, चेहरा ऐसा गंभीर और जबान में ऐसी खूबी रखी जाती है। यह क्या है ? माया ! झूठ-दोष को बाहर प्रकट न होने देने की चालाकी माया करवाती है । इस तरह के खानपान की लोलुपता, मान की आकांक्षा, स्वार्थीपन, और ऊपर से प्रकट उपकार में से भी अपना फायदा उठा लेना,... आदि आदि कितने ही दोषों को बाहर कोई जान न ले, माया इसकी बहुत सावधानी रखती है । बाहर ऐसा दिखालाएगा कि,
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'अपन तो जिस समय जो भी खाने को मिले इसे चला लेते हैं, इस बात की बहुत चिंता नहीं रखते कि ऐसा ही चाहिए और वैसा ही चाहिए ।" किन्तु यह सब बाहर से दिखाना करना इतना ही; जबकि भीतर तो अच्छे की ही लगभग खोज होती है । और अच्छा मिलने पर खुशी की सीमा नहीं होती । अच्छा हो तो चालाकी से ज्यादा उडाना... ऐसी चालाकी
है।
माया के अजब खेल ! खुद को मान की इच्छा होती है, परन्तु दिखावे मे मान की परवाह नहीं है ऐसा दिखाती है। मसलन, कहेगा महाराज ने व्याख्यान में अठ्ठाई के लिए बहुत कहा परन्तु अपना कोई बूता है, अपन तो अठ्ठम में बैठ गये ।
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क्या है यह ? बोलने की होशियारी । 'मैंने अठ्ठम किया है,' यह बात खूबी के साथ
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