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________________ शरीर में से खून का प्रवाह छूटा, मानों पुत्र के अनुराग से खून उछलकर बाहर न आया हो ! तोशल खत्म हुआ। धन जमीन व औरत, तीनों झगडे की जड : पैसे, जमीन व स्त्री, तीनों झगडे के मूल हैं। आज न्यायालयों में ढेर सारे केस लडे जाते हैं। क्यों ? इन तीनों में से ही किसी न किसी कारण से ! सगे भाई या बाप के साथ... भागीदार के साथ या पडौसी के साथ भी केस लडे जाते हैं । स्त्री के कारण तो आज हत्यायें भी होने लगी हैं। स्त्री के खातिर झगडे करना व विभक्त हो जाना, तो आज मामुली बात बन गयी है। / यहाँ तो दोनों पहले से ही गलत राग में पडे थे, इसीलिये तो संकेत करके एकान्त में आये थे। इसमें भी मोहदत्त वनदत्ता को बचाता है। इससे परस्पर राग का उन्माद बढना कोई नयी बात नहीं । अब तो मोहदत्त हक जताते हुए वनदत्ता को कामुक द्रष्टि से देखने लगा। उसने कहा, ‘घबरा मत, अब तेरी आपत्ति गयी । आ, इस केलगृह में कुछ देर आराम कर।' ऐसा कहकर हाथ पकडकर वहाँ ले जाता है, वह भी खुश होकर जाती है । सुवर्णदेवा दोनों का अत्यन्त राग देखकर खुश होती है । क्या वह इतना नहीं समझती थी कि 'ये दोनों एकान्त में मिलकर क्या नहीं करेंगे ?' सब कुछ समझते हुए भी खुश होती है । स्वयं भी एक बार पतित हुई थी, तो अब वह अपनी पुत्री के पतन में भयानकता कहाँ से देखे ? पतित हो चुके हैं, उनके आश्रय में रहनेवालों को उनसे अपने रक्षण की क्या आशा ? वडिल के सच्चारित्र की दीर्घकाल तक असर : शिक्षक ही बीडी, पिक्चर, स्त्री शिक्षिकाओं के साथ परिचय आदि पापों में पडे हुए हों, वे विद्यार्थियों के सच्चारित्र की रक्षा कैसे कर सकतें है ? ऐसे बाप अपने बेटों का व मातायें पुत्रियों का रक्षण कहाँ से कर सकते है ? आश्रित के चारित्र की रक्षा व उन्नति के लिये पहले स्वयं उच्च चरित्रवान बनना चाहिये । इसके लिये स्वयं की सुकोमलता, आरामप्रियता, गलत आदतें, शिथिलता, क्रोधी-मानी स्वभाव आदि को तिलांजलि देनी पडती है । ऐसा समझना चाहिये कि यह छोहुँ, इसमें मुझे व्यक्तिगत लाभ तो बहुत है, साथ ही साथ आश्रित में सच्चारित्र के निर्माण का महान लाभ है और इससे भी बडा लाभ है... सच्चारित्र की परंपरा टिकाने का । नहीं तो, स्वयं बिगडने पर स्वयं के बाद सारी परंपरा fasa है। सुवर्णदेवा यह नहीं समझती । उसने कडवे फल चखे हैं, फिर भी वनदत्ता को मर्यादा लाँघते देखकर खुश होती है । वनदत्ता मोहदत्त की ओर आकर्षित होती है । वह 00 २०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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