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________________ नौबत आयी और उसकी सारी सेना ने उसकी हार देखी । अभिमान अंधापन है। आदमी को इसमें अपनी क्षमता और विरोधी का पुण्य....आदि कुछ भी ध्यान में नहीं आता। अतः अपनी शक्ति के बाहर की दौड लगाता है, और परिणाम में जबरदस्त हार होती है। सोचिये, कितने ही महारथियों, विद्याधर राजाओं पर विजय पानेवाले रावण की उन राजाओं की नजर में कितनी बड़ी बेइज्जती हुई होगी? अभिमान बहुत बुरा है । आज कितने ही लोग अभिमानवश ऐसा वैसा बोल डालते हैं और सामने से पत्नी, पुत्र, पडोसी या मालिक आदि के ताने सहते हैं, अपमानित होते हैं। (४) अभिमान प्रियजनों को खोने का कारण बनता है। अपने घमंड ही घमंड में हर किसी को धमकाता है - सो भी एक बार नहीं, दो बार नहीं, कई कई बार; उसका नतीजा क्या होता है ? या तो वे उसका साथ छोड देंगे, या छोडना संभव न हो तो मन में उसके प्रति दुर्भावना रखेंगे। फिर सगी पत्नी भी चाहे जिंदगी भर साथ रहे लेकिन स्नेह रहित, और आदर-सद्भाव के बिना रहेगी। उसे सन्तान पर जो स्नेह-सद्भाव होगा उतना घमंडी पति पर नहीं । पति ने अभिमान करके क्या सार निकाला? पास में धन होगा तो मन में मानता रहेगा कि 'ये सब मेरे रोब के कारण कैसे दबकर रहते हैं।' परन्तु वास्तव में वे उसकी पीठ पीछे उसके प्रति दिल की आग ही उगलते होंगे। जबकि स्नेह-सद्भावना खोने में मौका आने पर ज्ञात होता है कि 'कौन अपने को-आश्वासन देता है?' अरे ! रो रो कर दिन गुजारने पड़ते हैं, ऐसे अवसर आते हैं। वह आश्वासन आदि मिलने का पुण्य अभिमान के पाप से नष्ट हो जाता है। नहीं तो वे ही स्नेही, जो एक समय बहुत अच्छा आदर देते थे, सद्भाव रखते थे, -सान्त्वना देते थे, वे अब कैसे मुँह फिरा बैठे ? कहिये कि इस अभिमानी के बारबार के वचनों और कार्यों के कारण ही तो। अभिमान गलत करवाता है - अभिमान करने के कारण जीव मानता है कि 'मेरे अभिमान से दूसरे लोग दबकर रहते हैं, और बाजार में अपनी धारणानुसार व्यापार से लाभ होता है' परन्तु यह हिसाब गलत है क्योंकि 'यह सब जो मनमाना अनुकूल बन जाता है उसका असली कारणभूत पदार्थ तो खुद का पुण्य है, अहंत्व नहीं । इसलिए तो जब पुण्य समाप्त हो जाता है तब अहंत्व ज्यों का त्यों खड़ा रहे तो भी सामने थप्पड पड़ता है।' लेने के देने पड जाते हैं। बाजार उलटा पडता है । खुद दुत्कार खाकर पीछे हटना पड़ता है । तो भी खूबी यह कि ऐसा मानने को तैयार नहीं होला कि - 'यह सारा विनाश होने में मेरा अभिमान निमित्त-भूत हुआ।' साथ ही यह भी ध्यान में नहीं आता कि - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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