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________________ कारण यह कि इस दुनिया में बाह्य वस्तुओं में सफलता मिलना या खोना होता है तो वह मुख्यतः अपने शुभाशुभ कर्मों के आधार पर निर्भर है न कि कषाय करने पर । 'हम क्रोध करें तो अगला हम से दबेगा । 'हम दावपेंच खेलें तो हमारा मनचाहा हो जाएगा ?' क्षणभर ऐसा प्रतीत होगा लेकिन वास्तव में इसके पीछे हमारा पुण्योदय काम करता होता है। शुभ कर्म -- - पुण्य का उदय पहुँचता है वहाँ तक तो सामने वाले पर गुस्से का प्रभाव पड़ता है, और माया से मनपसंद सिद्धि भी मिल जाती है, परन्तु जहाँ पुण्य पूरा हुआ कि उसके बाद उसी गुस्से के बदले थप्पड़ पड़ता है और उन्हीं दावपेंचों से अकल्पित, भारी आपत्ति में गिरना पड़ता है । यह बात धवलसेठ के जीवन में दिखाई देती है । श्रीपाल से उनकी भलाई के कारण अपने जहाज मुफ्त में चलवाये, उस में अपनी सफलता देखी, लेकिन बब्बर द्वीप में गिरफ्तार किया गया। आगे चल कर उसने श्रीपाल को समुद्र में गिराकर माना कि उसके जहाज और दो राजकुमारियाँ हाथ आ गयीं। लेकिन थाना बंदरगाह के राजा के सामने गुंडे के रुप में खुला पड़ गया। अन्त में अंधेरी रात में 'श्रीपाल को निद्रित अवस्था में मार कर परदेश में उसकी सारी जायदाद का मालिक बनने में सफलता मिलेगी' इस तरह छलकपट करके सफलता पाने की मान्यता से वह रात को श्रीपाल का वध करने उसके महल की सीढियों पर चढ़ा; जैसे कि अभी ऊपर पहुँच कर सोये हुए श्रीपाल का कटारी से 'खून कर डालेगा । लेकिन उपर से ऐसा नीचे गिरा कि वही कटारी उसके बदन में घुस गयी, और खुद धवल ही मरण की शरण में चला गया । सफलता का आधार दाव पेंच - चालाकी पर नहीं, बल्कि अपने शुभकर्मों के उदय की पहुँच पर है। पुण्योदय जहाँतक पहुँचे वहाँ तक सिद्धि दिखाई देती है । उसके पलायन के बाद सिद्धि के स्थान पर मार पडती है। आज भी दुनिया में सरल हृदयवाले सज्जन का काम अच्छी तरह चलता है; और उसके सामने दावपेंच, रोषरोब करनेवाले पछाड खाते हैं। क्यों ? बाहर की सफलता अथवा मार के सम्बन्ध में शुभाशुभ कर्म काम करते हैं । जबकि 1 अन्तरात्मा के गुण-दोष की कमाई का आधार सत्-असत् पुरुषार्थ पर है । अच्छा उद्यम करें, तो गुण आते जाएँ; बुरा उद्यम करें तो दोष बढ़ते जाएँ। बात यह है कि आप भला तो जग भला ।" हम स्वयं भलाई अपनाएं तो हमारे लिए दुनिया भी भला ही करती है । ज्यों ज्यों श्रीपाल भलाई रखते गए त्यों त्यों (प्रतिपक्षी) धवल सेठ की मायावी कारवाई भी उनके लिए शुभ सिद्ध होती गयी। आवश्यकता केवल धैर्य की है। Jain Education International ८४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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