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________________ गुरु ने भरत-बाहुबली के जीव-बाहु-सुबाहु मुनि के भक्ति-वैयावच्च की प्रशंसा की; उसे ब्राह्मी-सुन्दरी के जीव-पीठ-महापीठ मुनि सह नहीं सके। उन्हें ईर्ष्या हुई। गुरु ने कहा है अतः सामने विरोध तो नहीं कर सकते, हाँ में हाँ मिलानी पडे, अत: उसमें माया का खेल करना पड़े। अब उस गुरु के प्रति की गयी माया के कारण, खुद को जो 'ईर्ष्या हुई है, उसे मिटाने की गुरु के पास से सलाह लेने की बात ही कहाँ रही ? गुरु कौन है ? आदीश्वर भगवान का जीव-चक्रवर्ती मुनि, चौदह पूर्वो के ज्ञाता, महा तपस्वी तथा अचिन्त्य लब्धियों से युक्त ! साथ ही उनके उपकारी । ऐसे गुरु पर भी गुस्सा आया, तब उनका आदर करना कहाँ रहा? उपरान्त, वह गुस्सा छिपाने में माया हुई इसलिए ऐसे समर्थ गुरु के पास ईर्ष्या-क्रोध का प्रायश्चित भी कहाँ से लें ? और उस दोष को दूर करने की हितोपदेश भी कहाँ लेना रहा? माया के सेवन में बहुतसा भला-अच्छा चूक जाते हैं, अकल्याणदर्शी बनते हैं । सरलता-शुद्धता हो तो अच्छा देख सकें और अच्छा प्राप्त कर सकें। माया से मन शक्ती बन जाता है। माया क्यों करता है ? इसीलिए कि मन को ऐसा लगता है कि 'यदि माया न करूँ तो अच्छा नहीं दिखूगा- तो क्या होगा? मेरा मन चाहा न हुआ तो? अगले का प्रेम टूट जाय तो? ऐसे ऐसे डर हैं, वहम हैं इसलिए मायाचरण करता है। यदि माया छोड दे, सरल-स्वच्छ बने तो भाग्य पर भरोसा रख, ऐसे भय और शकको दूर कर सकता है। समझ में आए कि 'यश मिलना, अगले का प्रेम मिलना - यह सब तो मूल निहित भाग्य के अनुसार होनेवाला है। अपन सीधी सरल रीति से सन्मार्ग पर चले, बेकार में मन को माया से बिगाड़ना जरुरी नहीं है। एक व्यक्ति जवहिरात का दलाल था । दलाली शुरु की तब से ईमानदारी का मुद्रालेख जीना निश्चित किया था। न व्यापारी से माया न ग्राहक से। व्यापारी का दिया हुआ भाव ग्राहक से कह देना, ग्राहक की माँग व्यापारी से कहना । दोनों के बीच जो रकम बने सो ग्राहक के पास से लाकर व्यापारी को दे देना, खुद को सिर्फ थोडी सी दलाली मिलती थी, उसमें सन्तोष था। इस बीच उस के साथ के अन्य दलाल कहते : 'भले आदमी ! ऐसे तो क्या कमा सकोगे? बंबई जैसे शहर में आये हो तो खूब जेबें भरने के लिए? या सिर्फ रोटी कमाने ? यहाँ तो इधर से - उधर से - जो भी चुरा सको सो चुराओ । रोटी तो अपने गाँवमें कहाँ नहीं मिलती?' हैं न दुनिया में उचक्के - उठाइगिरे ? __ यह उतर देता - 'ऐसी माया, दगा बाजी कितने भवों के लिए? और इस एक भव में भी कैसे हो हथकंडे कर के कुछ कमा लिया तो वह पास में रहेगा ही, या भोगा ही जाएगा, ऐसा भी निश्चित कहाँ है ? पांना, बचना-भोगना तो भाग्य के अनुसार होता है। न्यायनीति-प्रामाणिकता जो दीर्घ कालीन भावी को उज्ज्वल बनाती है, माया खेलने जाने में ऐसा सब कमाना चूक जाता है, अत: मुझे अनीति-ठगबाज़ी नहीं चाहिए।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003228
Book TitleKuvalayamala Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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